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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 65


प्राण...!

आजकल प्रातः समाचार पत्र उठाने में हाथ कांप से जाते है। चाय का घूंट गले से उतारकर आश्वस्त होने का नाटक करती हूँ...अपने-आप से-तब धीरे-धीरे समाचार पत्र खोलती हूँ...।
समाचार पत्र का कोना-कोना देखकर ही मन को आश्वस्ति होती है।

आजकल पहाड़ पर मौसी के पास आई हूँ-यहाँ समाचार पत्र सांय की चाय के साथ मिलता है-सुबह की नहीं...। मन के पीछे छिपी डरी-डरी कल्पनायें सारे दिन को भयभीत किये रहती है।

प्राकृतिक सम्पदा-यहाँ मुझे अक्सर-अपनी एकान्तिकता में उदासी से भर जाती है। सामने का धौलाधार-बर्फ से सम्पूर्णतयः ढक गया है। हिम की विशाल जड़ता मुखर हो उठी है। कहीं-कहीं तो लगता है जैसे पर्वत ने श्वेत कफन धारण कर-उठने की तैयारी कर ली है। यह श्वेत बर्फ का अम्बार मुझे शाँति से नहीं-कहीं अव्यक्त-सी एक व्यथा से भर देता है। कितनी बड़ी-बड़ी हिंसाओं के बाद ही ऐसी शाँति का जन्म होता है शायद। हिंसा और अहिंसा का यही गठजोड़ है। यों तो समाज हिंसक है। सारी मानवता बर्बर हो उठी है। सब लोग जैसे मिल-जुल कर ही ऐसा विशाल कफन तैयार कर पाते है। पर्वत की विशाल काया को उस कफन में लपेट कर-धूप की तरह-उस पर हँसते है। यह प्रकृति का कहीं एक उन्माद नहीं है। मैं समझती हूँ-उन्माद ही है यह सब...। यह विद्रूप-सी हँसी कितनी कड़वी लगती है। लगता है स्वयं पर्वत भी इस विद्रूपता में शामिल हो जाता है। उसके इस खिलवाड़ में उसका साथ दे रहा है। कैसी उन्मुक्त हँसी है। यह पर्वत की...। जैसे।-न-जाने कितनी भयावह-यथार्थ के कफन ओढ़ने के बाद मिली हो-उसे...।

मालूम नहीं-कहीं उन्मादित-सी हो गई हूँ-आजकल। कुछ भयानक आवाजें, कुछ भयानक शब्द मेरा पीछा करने लगे हैं। मैं उनसे दूर भागती हूँ तो वे और भी तेजी से मेरा पीछा करते-मेरे पीछे भागने लगते है। ये आवाज किसी भविष्य का संकेत या मेरे अंदर का आर्तनाद...। मैं स्वयं अपनी छाया से भी भयभीत रहती हूँ। भविष्य के गर्भ में क्या है-नहीं जानती-पर मन आठों-पहर काँपा-काँपा रहता है और आजकल दिनों की लम्बाई इतनी बढ़ गई हैं कि मुझमें बीत नहीं पाती और रातों की लम्बाई में जुड़ जाती है। सबकुछ अछोर और असीम होता जाता है। लगता है बस अपनी जमीन से-अपनी धुरी से उखड़ गई हूँ...। कहीं अपने से भी दूर हो गई हूँ। अँगुलि रखकर-जीवन के महसूस को-महसूस कर सकूँ-ऐसा स्थल नहीं पा सक रही हूँ...।

अपने से ही बिछुरी डार की तरह आँधी में हिचकोले ले रही हूँ...। और क्या कहूँ-आगे की स्थितियाँ बड़ी कूमल दिखाई दे रही है...।

बंद करती हूँ-यह पत्र-बहुत रात हो गई है।

आज के लिये इतना ही-

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