श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 66
प्रिय राज!
पहाड़ पर स्थित-मेरे इस छोटे से कमरे में-जिस का मुखद्वार है-ही दक्षिण में-धूप आती ही नहीं। कभी-कभार पूर्व की खिड़की से कोई धूप का टुकड़ा लुकती-छिपता हुआ मेरी कुर्सी के हत्थे पर आ बैठता है-तो जी चाहता है उसे कोख में बांधकर रख लूँ...। जितना चाहूँ कि उसे अपनी हथेलियों में दबोच लूँ उतना ही वह छोटा-सा बिल्लौर-हाथों से फिसल जाता है। और पकड़ में नहीं आता। जी-चाहता है जब उसे पकड़ पाऊँ तो उसे बांधकर रख लूँ और मन के सारे अंधेरे कोनों को उससे एक बारगी उजागर कर लूँ...। पर मैं भी कैसी उन्मादित होकर बात कर रही हूँ-कहीं धूप भी बंधी है! या कभी यों मन के अंधियारे-मुट्ठी भर धूप से मिट जाते है। कभी-कभी तो इतना कोहरा जम जाता है कि हाथ-पांव जकड़ जाते है। उठने तक की शक्ति नहीं रहती। मैं चुपचाप उस कोहरे को गलाने का प्रयत्न करती रहती हूँ। कभी हथेलियाँ को एक दूसरे में फँसा कर तो कभी हथेलियों को एक दूसरे के साथ मसल-मसल कर...। मेरे आँसुओं में भी ऐसी जड़ता आ गई हे कि वे कोहरे को और भी घना कर देते है-और फिर सारा घर-सारा गलियारा-अंधेरे की लपेट में लिपटकर रह जाता है।
ऐसे में ही कभी-कभी मौसी अंधेरे में मेरा चेहरा देखकर डर जाती है। मैं भी मौसी को अचानक देखकर किन्हीं आशंकाओं में घिर जाती हूँ।
यहाँ अंधेरे में क्यों बेठी हो...कहकर प्यार से अपनी बाहों की अंजुरी में भर लेती है। और मुझे बाहर ढालान में ले आती है। तब क्षणांश के लिये लगता है-जैसे सारी धूप मेरी बाँहों में समा गई है और अब कोई वह धूप मुझ से नहीं छीन सकता...। पर वे क्षण-केवल क्षण होते है और पल-भर बाद ही फिर हताशा और निराशा में बदल जाते है...और फिर में और मेरा कोहरा अकेले रह जाते है।
क्या करूँ-कि कर्त्तत्य विमूढ़ हूँ। यहाँ आकर लगता है जैसे तुमसे और दूर हो गई हूँ...क्योंकि शहनाज के पत्रों से-भी तुम्हारे समाचार नहीं मिल पाते...। जैसे तुम्हारे और मेरे बीच का पुल टूट गया है। मैं इस किनारे हूँ और तुम उस किनारे। पर सोचती हूँ नदी की तरलता से किनारा-कितनी दूर रह सकता है। मुझे
लगता है मन के वीराने-जो साथ लेकर आई हूँ-वह दिन-भर साथ-साथ चलते रहते है, छुटकारा नहीं है उनसे...।
सच कहा है किसी ने ''जो सुख छज्जू के चोबारे'' अपनी धुरि में बंधे रहने से-जैसे सबकुछ सिमटा रहता है-सबकुछ अपने-अपने ढाँव से बंधा...सब कुछ पास-पास-यहाँ तो लगता है जैसे पूरी तरह से उखड़ गई हूँ...। वहाँ तुम इतनी दूर नहीं लगते थे-यहाँ से जैसे तुम...दूर किसी और ही दुनिया के हो गये हो। अब समझ मैं आ रहा है कि बड़े लोग (छू) अपनी ही कुटिया में क्यों जमे रहना चाहते है। उन्हें बाहर का नयापन जरा भी नहीं सुहाता। अपनी ही खूँटी से बंधे रहकर-अपनी रही-सहीं जिंदगी गुजारना चाहती है। आज उस सब का परोक्ष अर्थ अनुभव कर रही हूँ।
मुझे भी किसी तरह से जल्दी वापिस जाने का उपक्रम करना होगा...।
- ढेर सारी शुभकामनाएँ
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