श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 67
मेरे रहगुजर,
आज तुम्हें इस नये नाम से पुकार रही हूँ। इस का वास्तविक-शाब्दिक अर्थ तो मैं नहीं जानती-पर मेरे लिये इसका अर्थ है साथ-साथ चलना। लगता है तुम हर-क्षण मेरे साथ-साथ चल रहे हो, जैसे मैं तुम्हें अपने साथ, अपने ऊपर ढोये हुए-जिंदगी की सारी राहें पार कर रही हूँ...पर गलत मत समझना-तुम्हें लाश की तरह ढोकर नहीं। साधारण अर्थ में हम अपनी लाश ढोते हैं, अपने टूटे-फूटे सपनों के ढेर ढोते हैं और कहीं-कहीं कोई विरल से अहसास भी ढोते हैं। तुम मेरे वही अहसास हो, जो मुझमें इस बात की पुष्टि करता है कि मैं हूँ-मेरा अस्तित्व है-चाहे वह एक नकार-का हो-पर हैं। एक तरह से देखा जाये तो उल्टी धारा की तरफ चलने वाला-अहसास-जीने को-एक अलग ही तरह की तरंग से भर देता है-है न! तुम मेरा वही तरंगवाला अहसास हो-जिसे कोई किनारा नहीं बांध सकता। यों भी धारा के विपरीत बहकर अपनी राह बनाना-तो स्वयं वराहनिहिर के मुँह में हाथ देने जैसा होता है और उस ज्वलंत अहसास के प्रति-मैं नतमस्तक होती हूँ-कहीं अपने आप को थपथपाती हूँ...। यह सचमुच साहस की ही तो बात है। कितने लोग अपने चोखटे से बाहर पैर रखने का साहस कर सकते हैं...! यह साहस मैंने मनसा-वाचा से भरपूर किया है और इस तड़प का सकून भी हर दिन बटोरती हूँ...। तुम तक पहुँचने की मंजिल मेरा सकून नहीं है बस लहरों से लड़ना ही मेरा सार्थकता है। मेरी पहुँच है, मेरी सार्थकता है। इस सार्थकता से सदैव स्वयं को ढो सकूं यह क्या कम संतोष होगा।
शेष फिर-
- तुम्हारी
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