श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 68
प्राण प्रिय...।
शहनाज का पत्र नहीं आया दिनभर...प्रतीक्षा रही। उसे यहाँ का पता-बड़ी संजीदगी से दुहरा-दुहरा कर लिखवाया था। शायद कहीं व्यस्त होगी-या वह क्यों समझेगी मेरी इस आतुरता को...।
बस मनुष्य की नियति और अनियति को लेकर सारा-दिन उलझती रहती हूँ। क्या उचित है और क्या अनुचित। क्या सत्य और क्या असत्य। क्या परिहार्य है और क्या अपरिहार्य। क्या नैतिक है और क्या अनैतिक। ये कितने बड़े-बड़े प्रश्न है जो जीवन को आघान्त लीले रहते है, फिर भी कभी ठीक उत्तर नहीं बन पाते-शायद इसलिये कि सभी प्रश्नों के उत्तर संर्दभो के परिप्रेक्ष्य में बदलते रहते है। उम्रभर आदमी इन प्रश्नों के बीच त्रिशंकू-सा लटका रहता है और कोई निर्णय नहीं ले पाता। कभी-कभी लगता है सारा जीवन कोरा आदर्शवाद है। पूजा-अर्चना, सरस्वती का वीणा-वादन सभी कोरे आदर्श है, मन के बहलावे या बहकावे है। मर्यादा-पुरुषोत्तम राम को मर्यादा भी मात्र-अहम् था। पुरुष का सारा साहस केवल दंभ है, स्वार्थ है, अपने-आप में सिमटना है-या मृत्यु को ही एक और राह है। आज कुछ भी तो नहीं जो सच्ची आस्था दे। सारे विश्व का अस्तित्व खतरे में है-कुछ विज्ञान ने कर दिया, कुछ जीवन की विभीषिकाओं ने।
संसार में कुछ भी जानने की जिज्ञासा का खत्म हो जाना-सबकुछ अविष्कृत हो जाना, मन के और तन के दैनिक संघर्षो का विज्ञान की सुविधाओं से मुँह बंद हो जाना-मानसिक उधेड़-बुनो का मशीनों द्वारा विश्लेषित किया जाना और हमारा उसे मान लेना-इस सबने मिलकर-मनुष्य को अंदर से खोखला और खाली कर दिया। संवेदनाओं से भरी मानवता का गला घोट दिया। आज प्राणों में इतना दम नहीं था कि जीवन की विषमताओं को झेल सके।
तुम्हारी ओर से आने-वाले समाचारों की दहशत रोज झेलती हूँ-। पता नहीं क्या हो-जैसे हिटलर के कन्सट्रेशन केंप में बैठे लोग-सुन्न और भयाक्रांत बैठे अपनी नियति की प्रतिक्षा करते थे बिल्कुल उसी तरह! शहनाज तक भी तुम्हारे समाचार पहुँचते हैं या नहीं-मैं नहीं जानती-किंतु इतना अवश्य है कि अभी तक-मुझ तक कुछ नहीं पहुँचा और मैं डर की कहनी पर डोल रही हूँ...जिसका सर पर कफन बाँधे सिपाही को आभास तक नहीं हो पाता। क्योंकि एक युद्ध तो योद्धा लड़ता है और दूसरा उसके पीछे की सलनतें लड़ती है। देखो-तुम टूटना मत-टूट जाना मगर हारना मत। जीवन की नियति आज-या कल मरण है-तो वह मरण ओदार्य-क्यों न बन जाए।
इन पर्वतों की उदासी भरी संध्याओं ने तो मुझे उद्वेलित ही कर दिया है-और भी-पहले से कहीं अधिक...तुमसे जुड़े होने का यह उपहार है प्राण! जो भी जुड़े होते है वे तो दुःखते ही है। मैं ही नहीं न जाने कितने लोग अपने-अपने ढंग से-अपने-अपने संबंध से-कितने किस से जुड़े हुये होते है। कहीं एक जीव न जाने-अंदर ही अंदर कितनी दूर तक अपनी जड़ों में फैला होता है...किसी भी-वृक्ष की तरह-किसी भी पौधे की तरह...।
बस अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना-
शुभकामनाओं सहित-
- तुम्हारी
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