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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 69


प्रिय तुम!
लगता है तुम मेरा अतीत बनते जा रहे हो। कल तक तुम वर्तमान की तरह भासते थे-लेकिन समय के अंतराल के साथ-क्षितिजों की दूरी के साथ-तुम अतीत की स्मृति बन गये हो! यह सत्य है कि स्निग्ध-स्मृतियाँ जीवन को गतिमान बनाती है। सौन्दर्य और कला इन्हीं स्मृतियों की थाती है। इन्हीं स्मृतियों के प्रतीक और बिंबों की सृष्टि होती है। कल-तक तुम मेरी कल्पना थे, आज उससे भी सुन्दर स्मृति हो गये हो। जब भी तुम्हारी स्मृति में खो जाती हूँ लगता है संसार से कहीं-दूर-परे हो गई हूँ। तुम्हारी स्मृतियाँ मुझमें अवशेष नहीं हो पाई है। जब भी किसी स्मृति में-स्थित-मुस्कान से मुस्का उठते हो जैसे जड़ता में जीवन लहर जाता है। तब में एक बार फिर जीवित होकर अपने आस-पास में रम जाती हूँ। पुस्तकों को तरतीब से जोड़ने लगती हूँ मेज पर जमी धूल पोछने लगती हूँ। कंघी में फंसे बाल निकालकर-तेज-तेज कदमों से चल खिड़की के बाहर फेक आती हूँ। दर्पण में अपना चेहरा देखकर उसे संवारने लगती हूँ। एक बारगी चेहरे की सारी मुर्दनी छट जाती है-जैसे कोई द्वार पर दस्तक सुनाई दे रही हो। धंसी हुई आँखे-तब जरा बाहर निकलकर-अपने-आप ही इस स्थिति पर खिसियाने लगती है।

खाली कमरे को भरने के लिये-ट्रांजिस्टर का कान मरोड़ देती हूँ। सारा कमरा मेरे इस कृत्य से भौचक हो जाता है। इसी आवाज पर नौकर आकर दरवाजे पर खड़ा हो जाता है। मैं हंसकर चाय पीने की इच्छा प्रकट करती हूँ। वह फुर्ती से भाग जाता है। न जाने क्यों यह सारा घर-यह सारा वातावरण, ऊपर नीचे मेरी हँसी और उदासी में बंधा है जैसे! तभी झटके से आसमान में बादल-छा जाते है। बादल आकाश में-धूंये की गति से जैसे दौड़ लगा रहे है। वह एक दूसरे के पीछे भागकर जैसे एक दूसरे को पकड़ना चाहते है-या एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था होकर एक दूसरे में समा जाना चाहते है। कैसी स्वतंत्रता प्राप्त है इन्हें-इस-समा-जाने की। मैं कहीं बदहवासी में उन्हें एक-टक देख रही हूँ-मुझे लगता है मैं कहीं खिड़की के पास-खिड़की के बाहर-हाथ हिलाकर किसी चलती गाड़ी को-अलविदा-अलविदा कह रही हूँ और आँसू मेरे गालों पर सरकते-मेरा आँचल भिगो रहे हैं।
बीबी जी-बीबीजी-चाय! नौकर की आवाज चौंका देती है। मैं चेहरा छुपा लेती हूँ और खिड़की को छोड़ अंदर आ जाती हूँ-ताकि बलराम के सामने स्वस्थ दिख सकूँ...।

मौसी से भी डर रही हूँ। मेरी ऐसी स्थिति पर चिन्तित हो-कहीं मेरे पति को-कुछ न लिख दे।

यह कैसा दोहरा जीवन जीते है हम। एक अपने अंदर और एक बाहर। दोनों का सामंजस्य करने में-उम्र निकल जाती है। कभी समझौतों से-तो कभी अपने-आप को तोड़ते जिंदगी ढिलती रहती है। क्या यही जीवन है! क्या सभी इसी तरह दोहरी जिंदगी जीते है।

वास्तव में कितनी छलनायों से भरा है यह जीवन-कि सामने बैठे प्राणी को पता तक नहीं चलता कि उस समय हमारे मन में क्या विघटन चल रहा है...क्योंकि हम कह कुछ और रहे होते है और सोच कुछ और...। ऊपर वाले ने पता नहीं कितनी जुगत से यह ढका-ढकाया मन बनाया है।

मुझे तो हर क्षण लगता है जैसे मैं स्वयं से भाग रही हूँ-पर आखिर कितना भाग पाऊँगी!

और कितना-

- तुम्हारी


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