श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
पत्र - 70
प्रण-प्राण मेरे...।
जानते हो-ये आँसू कितनी-बड़ी मुक्ति देते है कभी-कभी। बरसने के बाद के आकाश की निःस्वच्छता का अनुभव है तुम्हें! धरती की तड़प को एक तरफ इतनी शांति मिलती है उन मोती मणिको से-टूटे सितारों की बरसात से...। पर मेरे आँसू केवल दुःख देते हैं क्योंकि हृदय में टंगी तुम्हारी तस्वीर को-अपनी डबडबाहट से ढक लेते है। उन आँसुओं में तुम एक धुँधली-आकृति बनकर तैरने लगते हो और मुझ से दूर किसी किनारे पर लग जाती हो। उसके बाद जब बादल छट जाते है तो सब कुछ स्फटिक-सा उजला हो जाता है। स्मृति का धुँधलापन मिटकर तुम्हारे अस्तित्व को आश्वस्ति देता है। कमल उगने लगते है। बरसाती वीर बहूदियों की तरह यहाँ-वहाँ हर-सिंगार उग आता है। तुम यही हो-तुम यही हो-की आवाज मेरे चारों तरफ गूंजने लगती है।
पर कुछ ही पलों बाद-उस रात आकाश का बादलों में खो जाना-मुझे क्यों बार-बार किसी अन्चीन्ही अनहोनी से बाँध देता है। अपने मन को बिखरने न देना-यह चाह कर भी-फिर बिखर-बिखर जाती हूँ...।
शहनाज का पत्र आता तो-शायद कुछ राहत मिलती...।
आज और प्रतीक्षा करूँगी। नहीं तो कल वापिस चली जाऊँगी...।
मेरी भटकन भी न जाने क्यों-यहाँ मेरे साथ चली आई है...। चाहे कितना संभलू-वह मुझे भटकाती ही रहती है दिन-भर...। मैं जैसे एक परिछाई के पीछे भागती रहती हूँ। वह परछाई-साया बनकर-मुझमें लिपटी रहती है। अलग होना ही नहीं चाहती। यह कैसा भंवर है, जिसमें मैं गोते खा रही हूँ...दिन रात-कहीं ठौर नही हैं। चलों शेष फिर...
- तुम्हारी
|