श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 71
मेरे अमूर्त बिंब,
आज भी शहनाज का पत्र नहीं आया। बार-बार अनहोनी की तरह शहनाज का वैराग्य-धरा-सा रूप आँखों में उभर रहा है। लगता है ज्यो-ज्यों समाचारों की सुर्खियाँ युद्ध की सरगर्मी से सरोबार होती जाती है, त्यों-त्यों तुम्हारी प्रिया के चेहरे की रौनक-धूमिल होती जा रही है। शहनाज के माध्यम से न जाने क्या-क्या कह जाती हूँ। कभी-कभी दूसरों के माध्यम से हम-अपने-आप को बचाने के लाघव में क्या स्वयं को इतना ही गहरा डूबा हुआ नहीं पाते...। आवरण से जैसे सौन्दर्य की आत्मा द्विगुणित हो जाती है, उसी तरह रहस्य भी उजागर हो जाता है। आवरण को तो होना ही रहस्य का पर्याय चाहिये नहीं तो आवरण की सार्थकता ही क्या रह जाती है। जितना ही हम सच्चाई का नाटक करते हैं, उतने ही हम अंदर से कहीं झूठ से निरावरण होते है। तुम्हारी दूरी और तुमसे बंधी-नित नयी आशंकाओं ने तो जैसे मेरे जीवन की सरलता और सपाटता में प्रलय खड़ी कर दी है। अंदर और बाहर के द्वंद्व के बीच आहत हूँ-अवश हूँ। चेहरे पर जो परते ओढ़कर जी-लेते है-उन्हीं से ईषा होती है। कितनी आसानी से जी लेते हैं वे। और जो ये परते नहीं ओड़ सकते-जिनके चेहरे की हर शिकन से अंदर का लावा बाहर उछलता है-वे ही कमजोर पड़ जाते हैं, टूट जाते हैं। मैं टूट रही हूँ-मैं टूट गई हूँ...। किस छल में जी रही हूँ-किस आशा को पकड़े हूँ...और क्यों। शायद यही होना मेरा भाग्य था। नहीं तो सबकुछ होते हुये भी-तुम्हारा अपरूप सौन्दर्य, तुम्हारी दिव्य दृष्टि का आकषर्ण मुझे बाँधता ही क्यों।
आज मुझे एक कविता याद आ रही है। कहीं ग्रीक साहित्य से संबंध रखती है शायद! कविता तो याद नहीं है पर उसका सार-कहीं दिलों-दिमाग में अटका रह गया...। कवि कहता है कि एक युग में, उस समय का राजा अच्छे-अच्छे कवियों की सर्वोत्तम रचनाएँ मँगवाकर पानी में बहा देता था। जो रचना धारा के उलटी तरफ निकल जाती थी-उसी को-उस वर्ष की श्रेष्ठ रचना मान लिया जाता था।
प्राण! उस कविता के सीधे अर्थ न होकर प्रतीकात्मक अर्थ होंगे। धारा के साथ तो सभी बहते है। हम सभी बस धारा में बहते है, भेड़ चाल में चलते है, इसीलिये उसके लिये कोई यत्न नहीं करना पड़ता-उल्टी धारा में बहने के लिये यत्न चाहिये और वही यत्न ही व्यक्ति की यातना बन जाता है। मैं आज अपनी ही चुनी हुई यातना में त्रस्त हो उठी हूँ...। कभी-कभी ये यातनाएँ प्रतिफलित न होकर हताहत भी होती है-शायद...। मैं हताहत हूँ-परास्त हूँ क्योंकि मैंने स्वयं उल्टी धारा-की दिशा चुनी है।
पंछियों के झुँड अपनी-अपनी ठोरों की दिशा में उड़ चले हैं। संध्या भी उदासी में घिर आई है। किंतु मेरी प्रतीक्षा को कोई दिशा नहीं मिल पाई...आज भी...।
पर क्या सभी को दिशा मिल पाती है प्राण...।
- दिशाहीन
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