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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 72


प्राण प्रिय!

हम वर्तमान में कल की प्रतीक्षा करते है। अतीत का सम्बल पकड़-पकड़ कर उसमें पैर रखते है। मेरा सम्बल क्या है, नहीं जानती। पर कोई अबूझ-अप्रतिम दीये-सा मुझे सुदुर अतीत-सा दिपदिपाता दिखता है। मैं उसी दीप्ति को-अपने वर्तमान में क्यों खींच लाना चाहती हूँ प्राण...। क्या प्रकाश कभी अपनी-मनमानी दिशा में खींचा जा सकता है! जब सूरज की लाली खत्म हो जाती है तो संध्या उसे लपेट लपेटकर आंचल में बांधे रखना चाहती है पर अंधेरे के यम आकर उसका सारा देदीप्य छीन लेते हैं। वे कोई रहम नहीं करते...। मेरा भी शायद यह प्रयास निष्फल ही है।

तुम दिन-पर दिन एक स्मृति बिंब बनते जा रहे हो। ध्रुव तारे से अटल, संध या तारे से सुंदर। आज मुझे उसी स्मृति-बिंब से अपने अंदर-बाहर आलोकित करने हैं। मुझे वर्तमान और भविष्य को भूलकर, अंधेरे में खो जाने का अधिकार ही नहीं है शायद। जब वर्तमान हमारी हथेली पर आकर खड़ा होता है तो वह भविष्य और अतीत में अपना स्वत्व नहीं खो सकता...इसी से अपना अधिकार मांगता है। वह आज-केवल आज ही हमसे सब कुछ करवाता है। हम अपनी नियति में बंध उसमें बहे चले जाते है। हमारा अतीत अवचेतन में हमें कितनी ही निमर्मता से झाड़े-हारकर हमें लौटना होता है और हम लौटते है-मन से या तन से-किसी भी तरह-यह वादात्मय जोड़ना ही होता है। समय जड़ नहीं है। इसलिये व्यक्ति भी जड़ नहीं हो सकता। उसे अपनी जड़ता को समय की अपरिमिता के साथ जोड़कर ही मुक्ति मिलती है। कर्त्तव्य और भावना में-कर्त्तव्य की ही जीत होती है। भावना कभी-कभी जीतकर भी हार जाती है...और हार तो हार ही है प्राण...।

मैं समझ गई हूँ जीने के लिये जितनी वीतरागता आवश्यक है उतनी ही आसक्ति भी। दोनों के बीच कहीं एक रेखा खींचनी पड़ती है। एक सहनशक्ति का पुल बाँधना पड़ता है। यही रीत है और अन्ततः यही जीत भी।

मुझे भी लौटना होगा-अपने वर्तमान में। इन पहाड़ों की तराइयों में उठते-गिरते बादलों को परतों ने मानों मुझे कहीं वर्तमान और अतीत के बीच और भी भटका दिया है। मुझे इन परतों को काटना ही है।

यकायक मन से तेयारी कर ली है। लौट रही हूँ प्राण...अपने यथार्थ के निकट-अपने वर्तमान के निकट और शायद कुछ तुम्हारे निकट भी...।

मैंने कहा था न कि मैं वहाँ होती हूँ तो लगता है तुम कहीं निकट हो-शायद शहनाज के कारण लगता हो कि शायद तुम तक मैं उसके द्वारा पहुँच सकती हूँ...तुम्हारा कोई-चिन्ह भरा-सा भी संदेश-मुझे कहीं आशाओं से भर देता है।

यहाँ मैं उस स्थिति से भागकर आई थी-जिसमें तुम्हारे निकट नहीं थी-पर लगता था दूर भी नहीं हूँ पर तुम्हारी दूरी में घुट रही थी।

पति की आँखों में-मेरी उदासी के प्रति उठे सवालों को अनुतरित करना चाहती थी। समय-धाव भर देता है-शायद दूरियाँ भी मानसिक रूप से कम हो जाती है-या यौं कहो कि स्मृतियाँ धूमिल हो जाती है। जीने के लिये तो तिनके का भी सहारा बहुत होता है न...।

द्वंद्व में जीना-तो मृत्यु से भी भयावह है। है न!

शेष फिर कभी-

- तुम्हारी

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