श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 73
प्राण!
सोच रही हूँ...इस समय में अतीत से कटकर...जो वर्तमान से जुड़ने जा रही हूँ...उसमें तुम भी क्या शामिल नहीं हो! हो! तुम भी तो अपना वर्तमान-का कर्मकर कर रहे हो। महाभारत के यज्ञ की अग्नि की समिधा की तरह। कर्म ही तुम्हारी सिद्धि है...कर्म ही महाभारत है। महाभारत का यज्ञ भी-परस्पर सौहार्द-धर्म-संवेदना को ताककर रखकर कर्म और कर्त्तव्य का यज्ञ है। भगवान ने कर्म को ही महत्ता दी है-इसीलिये तो सज्जन-परिजन-गुरु-शिष्य, भाई और भाई परस्पर भिड़ गये थे। वास्तव में सत्य भी है कि अगर मनुष्य निष्क्रिय हो जाये और भाग्य के प्रतिफल की प्रतीक्षा करे तो सब स्थित प्राय हो जायेगा। कर्म ही हमारी प्राण-शक्ति है। आज यहाँ तुम्हारे समक्ष है। गीता की आस्था-कहीं अवश्य तुममें विद्यमान देखी है मैंने। ईटों ओर पत्थरों की बनी दीवारों को ही हम जीवन की सच्ची-सीमाएँ मानकर चलने लगे है-इसीसे सारी दुविधाएँ हैं। तुम इस परीक्षा में स्वयं को होम कर दोगे...तो इस गलत गणित से ऊपर उठ जाओगे...।
कुछ क्षेत्र होते हैं जहाँ हमें ताड़ के वृक्ष की तरह खड़ा रहना होता है, झाड़ियाँ नहीं बन जाना होता-जो हवा के झोंके के साथ अपना रूख बदलती रहती है। वे जीवन का रूख देखती है और समर्पित हो जाती है। पर ताड़ के वृक्ष को केवल ऊँचा-आकाश ही देखना होता है-चाहे आंधियाँ उसे जड़ से उखाड़ दें-पर वह टूट सकता है-मगर झुक नहीं सकता। सही उसके जीवन का महत सत्य है। इस युद्ध के क्षेत्र में तुम्हें भी ताड़ ही बनना है। भीम बनकर तुम्हें अपनी अटलता सिद्ध करनी है।
हम सब जीवन के इसी चक्र में फंसे है। कहीं त्राण नहीं है। रथ के पहिये की तरह हमें अपनी धुरि के ईद-गिर्द चक्कर काटने है। इसी चक्र में हम बहुधा पिस भी जाते है और कभी-कभी अपनी मंजिल भी पा लेते है।
मैं तुम्हें कमजोर नहीं देखना चाहती। तुम्हारा हताश होकर लौटना नहीं देखना चाहती। तुम पत्थर बन जाओं-और अडिग रहो...तभी मैं तुम्हें ऊँची दृष्टि करके देख पाऊँगी। गलना मत...प्राण! अगर हिम बनकर पिघल जाओगे तो पर्वत का सीना उधड़ जायेगा...तब कर्म का सिद्धान्त अपमानित होगा।
चाह रही हूँ कि कुछ जान सकूँ-तुम्हारे माता-पिता के बारे में। अभी तक वह क्रूरता के शिकार है या तुम्हें जन्म देने की उपकृति पा चुके है। मुझे विश्वास है ऊपर वाले ने-तुम्हे पितृ-ऋण से अवश्य मुक्त कर दिया। धरती ऋण से भी तुम उबर चुके हो...इन सबके साथ माँ का ऋण तो चौगुना होकर उतर ही जाता है।
हमारा जन्म लेना इसी ऋण-उऋण होने की एक लंबी प्रक्रिया है। इसीकी सार्थकता मुक्ति बन जाती है। यों मरना कभी मुक्ति का नाम नहीं होता। ऋणों से उऋण होना की मुक्ति कहलाता है।
केवल परमशक्ति का विश्वास ही संबल है। बस उसे ही पकड़े रहना...वही तुम्हारे मार्ग की दिशा-ज्योति बनेगा...।
ढेर सारी शुभकामनायें-
- तुम्हारी
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