श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 74
प्रिय...!
आज वापिस लौट रही हूँ। ये पहाड़ की तलहटियाँ, सामने का धौलाधार, बीच में नदी का तलछट कैसे पीछे की ओर दोड़ते जा रहे है और मेरा रथ आगे की ओर छलांगे लगा रहा है। इसी तरह जीवन में अनेक पड़ावों पर रूककर हम अतीत से वर्तमान की ओर-और वर्तमान से भविष्य की ओर भागते रहते हैं-आगे...और आगे...।
धीरे-धीरे वर्तमान केवल अतीत मात्र रह जाता है और धीरे-धीरे हम ही बीत जाते है। यह समय यूंहि खड़ा मुँह बांये हमे देखता रह जाता है...और हमारा कोना-कोना झरता है इसके सामने। समय की मार बड़ी तीखी होती है प्राण...यह किसी के साथ दुरभि संधि नहीं करता। सभी को एक ही लाठी से हांकता है।
कली खिलते समय कैसी सुकुमार-दृष्टि से-लुकी छिप्पी संसार को एक मनुहार से निहारती है-बसंत के बौर को अपनी अपूर्व मुस्कान से अपने होठों पर झेलती हुई...मुग्ध-एक मुग्धा-सी-अनमोल कली... की तरह...परन्तु खिलते ही उसमें कितनी प्रगल्भता आ जाती है। उमर का अहम् उसे लील लेता है-झरते हुये फूलों पर वह हँसती और ठिठोली करती है। तभी समय का अहसास उसकी एक-एक कोपल से खिलवाड़ करता है...तो वही उसकी पीड़ा बन जाती है। कहीं पैरों तले रौंद जाने के लिये तो कहीं झर-झर कर बीत जाने के लिये। यही जीवन का क्रम है। हम इसे कहीं पकड़ कर रख सके हैं आज तलक...।
कल तक ये वृक्ष, ये सुनहरी घाटी की तलछट मेरी भावना के समक्ष-इठलाती-साथ जुड़ी-जुड़ी है सती और गाती थी-पर आज कितने तटस्थ भाव से मेरा जाना देख रही है। जब किसी को जाना होता है तो बस जाना होता है। उस समय सब हथेली में विवशता बांधे-सूजी आँखों से बस धूल उड़ती देखा करते है।
इस समय सूर्यास्त हो रहा है। ये छोटे-छोटे आपस में सिमटे-चिपटे गाँव डूबते सूरज के तले सुस्ता रहे है।
इस समय मेरी चेतना न जाने क्यों कांगड़ा की इस धरती से सहस्त्रों मील दूर किसी कल्पना को विवशता में छटपटा रही है।
ऐसे में कभी-कभी लगता है तुम किसी सैनिक खेमे में सोये हो...और मैं तुम्हें बाहर से आवाज दे रही हूँ...जैसे उस खुरदरी जमीन के बिस्तर पर तुम कसमसा रहे हो-शायद मेरी आवाज सुनकर...मैं एक बार और जोर से तुम्हारा नाम पुकारती हूँ...और मेरी आँख खुल जाती है। यथार्थ की धरती-बड़ी कंकरीली होती है यह लौट कर ही पता चलता है।
बस भी शायद किसी कंकरीली-सड़क पर ऊपर-नीचे-डगमगा रही है...उसकी चाल धीमी हो गई है।
शेष फिर-
- तुम्हारी
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