श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 75
प्राण...।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क्या अधिकार है मेरा तुम पर...कि मैं तुम्हें रोज पत्र लिखती हूँ। एक अनाम-रिश्ता-एक अनाम अनुभूति-एक अनाम संवेदना...जिस की कोई परिभाषा आज तक नहीं गढ़ी गई। यों यह अधिकार हमारा नहीं होता फिर भी हम उसे अपने-आप में जैसे मान कर चल पड़ते है। यहीं नहीं उसी लाघव में हम दूसरों के दायित्व भी अपने झोले में डाल लेते हैं-ताकि अधिकार स्वयं ही हमारी पोटली में चले आएँ। उन अधिकारों को हम हथियार की तरह संजोते चलते है। जहाँ जरूरत पड़ी-वह हथियार निकाला और दूसरे की कतर ब्यौत कर डाली-उसे तराश लिया अपने कद के अनुरूप...। आज बहुत से लोगो में न हथियार की पोटली भरने की फुरसत है और उत्तरदायी होने का तो धर्म ही नहीं है। बल्कि अपना बोझा हल्का करके चलते है और हम है कि हमें मजदूरी की आदत हो गई है। दूसरों का सामान भी अपने कँधों पर ढो-ढो कर चलते है। तब काँट-छाँट और छटनी भी तो हमारी ही होगी। हम चटकते रहते है। दाँए-बाँए-रोज-बैरोज-दूसरों की आग में झुलसते हुये।
रास्ते को पत्थरों से ठोकर खाये बगैर हम आगे बढ़ ही नहीं पाते...इसीलिये-काँटों को न्योता देते रहते है। न जाने किस हाथ की लकीर में-आकर तुम बैठ गये और आज मेरा जीना दूभर हो गया-और मेरी इस पीड़ा पर जैसा मेरा जन्मसिद्ध अधिकार स्थापित हो गया। बनेर पर कौआ बोले तब, बिल्ली रास्ता काट जाये तब, कहीं दायीं आँख फरक जाये तब...कहीं टिटहरी की टी-टी सुनाई दे जाय तब, कुत्ते रोने लगे तब...मन किसी भयावह अपशगुन के दहल जाता है।
शेष फिर-
- तुम्हारी
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