श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 76
प्राण प्रिय,
जानते हो एक खुली-खिड़की-गलियारों में फैले अनंत अंधेरों को क्षण-भर में निगल जाती है। काश! अपनी हथेली पर रखे इन अंधेरों को-खुली खिड़की तक ढो सकूँ। कभी-कभी सोचती हूँ कहीं वह अंधेरे-केवल अपने बनाये हुए ही तो नहीं है। जिन्हें हम यूंहि अपनी-किसी धुन में ढोये जाते हैं। उन कागजी अंधेरों में ठोकर खाते, जिंदगी के गलियारों में चक्कर-घिन्नी की तरह घूमते और भटकते रहते है। हम ख्याली अंधेरों में हम इतने गुम हो जाते है कि प्रकाश से हमारा नाता ही टूट जाता है। एक कुँए के मेढ़क की तरह-हम अपनी चार दीवारों में ही सिर-पटकते-पटकते अपनी ही सीमाओं में दम तोड़ देते है।
पर कभी-कभी हमारा दर्द से साक्षात सामना हो जाता है वह कोई वायवी-भाव नहीं रह जाता। जब हम वास्तविक दर्द के रूबरू होते है तो हमें उसकी अनुभूति होती है, उस अनुभूति की पीड़ा-तिलमिलाहट, बेबसी कहीं अंदर-बहुत गहरे उतर जाती है। ऐसे दर्द मनुष्य के लिये उम्रभर का नासूर बन जाते है।
आज मैंने ऐसे ही दर्द को महसूस किया है-हाथों से छुआ है-आज मैंने दर्द को रूबरू अपनी आँखों से देखा है-दर्द ने जैसे अपनी मुट्ठी में दबोच कर-मेरा हाथ सहलाया है और मेरे अंदर की दीवारे आर्द होकर भर-भर कर गिर गई। मैंने उस मुट्ठी को अपनी मुट्ठी में दबाकर एक सकून-देना-चाहा-सकून की एक उधारी उसाँस भरने को दी-पर मालूम नहीं, मेरी कोशिश पूरी हुई कि नहीं। लेकिन मैंने प्रयत्न अवश्य किया। एक माँ की उस मुट्ठी को भींचने की-जिससे अभी-अभी उसकी जवान बेटी की जिंदगी रेत की तरह फिसल गई। और एक क्षण ने पराभव के फासले डाल दिये। भव और पराभव को अलग कर दिया। वह उस पराभव में पटक दी गई जिसमें केवल खाली हाथ मले जाते है। सबकुछ पहुँच से परे हो जाता है। कुछ भी दिखाई नहीं देता। केवल छायाये विचरती है। केवल अधूरी आकांक्षाओं, अधूरे रास्ते, अधूरे स्वप्न...पसर जाते है। सबकुछ पहुँच से बाहर हो जाता है-सोच के बाहर हो जाता है...उस दर्द को मैंने अपने हाथों में भींचा-उसे अपनी अतरंग आँखों में उतरा-देखा-एक बेचारगी-खालीपन और असहायता देखी।
माँ उस बेजान तस्वीर को देख रही थी-जो अब कभी सजग होकर नहीं हँसेगा। पिता के हाथों में बेटी को कफन में लपेटा देखा-बेटी के पैरो में बैठकर गिड़गिड़ाते-रोते-बिसूरते-जन्मों-अजन्मों के किन्हीं पापो की क्षमा-मांगते देखा-बार-बार एक ही सवाल पूछते सुना-! क्यों-बिटियाँ-क्यों-सरो-मेरा दोष तो बताती जा।
कोई रास्ता तो खुला रख-जहाँ मैं तुम्हें देख सकूँ-मिल सकूँ-पार कर सकूँ-क्यों जा रही हूँ पीठ मोड़कर-क्यों मुड़कर भी नहीं देख रही हमें...।
मैं तो तुझे डोली के हिंडोले में बैठाकर भेजने के सपने देख रहा था...।
मैंने आज उस माँ-बाप के रूप में दर्द के साक्षात दर्शन किये है राज...।
तुम्हें बोझिल नहीं करना चाहती थी इस पीड़ा से-पर रोक नहीं पाई अपनी उद्विग्नता-अपनी वेदना... क्षमा कर देना मुझे...।
भगवान तुम्हें इस युद्ध की विभीषिका से बचाये...।
शुभकामनाओं सहित-
- तुम्हारी
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