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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 77


मेरे राज!

कहते है भटकन मनुष्य के अंदर होती है। मनुष्य भेष बदलता है, स्थान बदलता है लेकिन उसकी आंतरिक भटकन उसे कहीं भी भटकाती है। बाहरी परिवर्तन से आंतरिक उथल-पुथल नहीं बदलती। मोती तो मन के अंदर होता है न प्राण! हमें उसे धागे में पिरोकर माला में सहेजकर रखना होता है... पर वही सब जब उछल-उछल कर गले को आता है तो गले की फांस बन जाती है।

बाहरी वातावरण अगर भीतर से उदासी को मिटा सकता तो खानाबदोसी का जीवन सबसे अधिक सुखी होता।

मनुष्य का मन जब किसी नियति को प्राप्त करने के निकट होता है तो उसके लिये कैसे-कैसे उपक्रम करने लगता है-और साथ ही उसके निकट पहुँचता जाता है-जिसका उसे आभास तक नहीं होता। कभी-कभी हमारी नियति हमें कहाँ से कहाँ उठा कर ले जाती है। नियति को एक निश्चित जमीन होती है। समय होता है। इतना जानती हूँ-प्राण चाहे इसे अंधविश्वास कहाँ जाय या पूर्वाभास का नाम दिया जाए-लेकिन नियति की आहट...व्यक्ति को बहुत पहले ही हो जाती है उसकी प्रतीती भले ही न हो...।

कभी-कभी मेरे पर्स में पड़ा एक कागज का टुकड़ा मुझे उद्वेलित करता रहता है। जी चाहता है अभी खोलू और उसे पढ़ डालूँ। लेकिन तुम्हारे हाथ की अंगुलियों के वे पपोटे जो मेरी हथेली पर ठहर कर धीरे-धीरे मेरे अंदर उतर गये थे-मुझे उसे छूने नहीं देते...।

क्यों कहा था तुमने-मुझे ऐसा...

केवल इन्हें मेरे न रहने पर ही खोलियेगा...क्यों कहा था तुमने! आज मुझे विहल किये है तुम्हारे वे अंतिम-तटस्थ होकर-जाने से पहले-कहे गये शब्द। उस पर वह तुम्हारी उदासी-सी मुद्रा...।

बार-बार क्यों उभर आता है वह तुम्हारा चेहरा-वे शब्द वे अंगुलियाँ-वे आँखे-वह अनजान-भोला-सा स्पर्श।

मैं जानती ही नहीं-मुझे सदैव विश्वास रहा है कि तुम मेरे नहीं हो-न ही हो सकते हो-न ही मैं तुम्हारी होना चाहती हूँ...फिर भी कभी-कभी लगा जैसे तुम किसी को लांघ कर आने का प्रयास कर रहे हो। तुम ही क्यों...मैं भी तो यही करती रही हूँ...। पर मेरा तुमसे आत्मसात होना-कहीं कुँए में डूबने जैसा लगता रहा। उसमें डूबकर-शायद मैं कहीं उन्मुक्त होती पर अपने आप को कहीं कीचढ़ में लिथड़ा हुआ पाती।

मेरी बेरूखी भी कभी-कभी तुम्हें रूऔसा करती रही है। तुम्हारी खींझ भी मुझ तक पहुँचती रही है-। पर पहुँचने से ही तो सब कुछ नहीं पहुँच जाता। उनके बीच आती छायाओं से उम्र भर जूझना पड़ता है। लड़ना पड़ता है। धारा के विपरित बहना पड़ता है।

चाहे तुम-चाहे मैं क्या कभी धारा के उल्ट जा सके। नहीं न...। इसे ही जीवन कहते है। अगर यह कँटीली...तारे-हमारे आसपास न होती-तो यह समाज न होता-जिसमें जीकर सांस लेते रहे है और सदियों तक उसकी ऊर्जा हमें जिंदा रखे रहेगी।
मुझे मेरी यात्रा करने दो प्राण। मेरी यात्रा तुम तक खत्म नहीं होती। मुझे भविष्य भी देखना है और अपने वर्तमान को भी।
इतना विहलता तो में कभी नहीं हुई प्राण।

- तुम्हारी


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