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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 78


प्राण...।

बस दौड़ती जा रही है और मेरे मानस में उस विदा होने की रात से पहले की शाम उभर रही है। ऐसी ही उदास-सी वह संध्या थी। आकाश के चंदोवे पर वह बोझिल-संध्या इस तरह टंग गई थी कि हिलने का नाम ही नहीं लेती थी। तुमने भी उस लंबी शाम को छोटा नहीं बल्कि और लंबा ही किया। तुम नहीं आए और वह काली संध्या-इतनी लंबी खिच गई कि आज तक मुझ पर चंदोवे-सी टँगी है। उसने अपनी उस विकराल-विराटता से आजतक ढक रखा है। उस अंधकार की विराटता में यही लगता रहा है कि एक ट्रेन भाग रही है-और तुम खिड़की के अंदर-किसी गहन अतल में डूबे उदास बैठे हो। कभी-कभी खिड़की बाहर फैले उजाड़ का लौस जंगल में तुम्हारी आँखे फैल-फैल जाती है।

उस दिन रात-भर लगता रहा है कि मेरे हाथ विदा में हिल रहे है...लेकिन उसके उत्तर में तुम्हारे हाथ नहीं उठे है-। पर यह तो उससे एक दिन पहले वाली संध्या थी न...जिस दिन तुम-ये रहस्यमय-लिफाफे में बँद कागज मुझे थमा गये थे। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि वही हमारी अंतिम भेट थी। वही विदा थी-वही आने वाले रेगिस्तान में न होने वाली वर्षा थी।

किंतु सब अपनी-अपनी सीमाओं में बंधे है। आज जब बस स्टेण्ड पर मौसी की आँखे भरी हुई मेरी ओर उठी थी...तो मैं झेल नहीं पाई थी और उस समय भी मैं उनके उठे हाथ नहीं देख पाई थी। किसी अतीत की कल्पना में शायद गड़मड़ हो गये थे। मेरी आँखे किस-समय क्या देखना चाहती है और क्या देख पाती है-वह भी निर्यात की तरह अनदीखा ही रहता है।

आज की यह सारी यात्रा-ये फैली हुई वीरानगी-केवल तुम्हें लेकर है। काश! मैं उन क्षणों को उस समय अपना भविष्य समझ कर जी पाती। पर मैंने वह कभी नहीं समझा था कि उस वर्तमान के वे क्षण सदैव के लिये-केवल अतीत बनकर रह जायेगे...। समय की उपलब्धि को न समझकर हम कितने ही स्वर्णिम ऋण-अपने हाथो से फिसल जाने देते है। हम उस वर्तमान को-अतीत तक पहुँचा कर-समझ पाते है। आज को आज ही नहीं जी पाते और उन क्षणो को बस अपने से दूर लौट जाने देते है...। जब वे क्षण सचमुच न लौटने वाले-अतीत हो जाते है तब हमारा माथा ठनकता है। हम उम्रभर बार-बार यही दोहराते रहते है और संजोने की क्षमता ही खो देते है।

वह वर्तमान जो आज अतीत बन गया है मुझ पर से जैसे एक तीव्र वायूयान की तरह उड़ गया है। बस उसकी कर्ण-भेदी चिंघाड़ मुझे नैपथ्य में रोज सुनाई देती है।

प्राण! मैं स्वयं में कैसी अवाक और अवश हो गई हूँ और जानती हूँ कि तुम इस समय तक जा चुके होगे-गाड़ी में-बैठ चुके होगें-शहनाज! तुम्हें अलविदा कह चुकी होगी शायद और भी कुछ लोग तुम्हें गाड़ी पर छोड़ने गये होगे-पर मैं-केवल उन कल्पनाओं में खोई-उन क्षणों को लौटाने के लिये बिसूर रही हूँ...।

मैं ऐसी हताशा मैं कुछ नहीं कर सकती...कुछ भी तो नहीं...।

- एक हताशा

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