श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 79
प्राण!
पहुँच गई हूँ वापिस...। रात का अंधियारा, संध्या के सभी आग्रहो को ढुकराता सारे शहर पर फैल गया था। दिन भर की चिल्ल-पौ पर जैसे चुप्पी लग गई है। सड़कों पर टिमटिमाती बतियाँ बिचारी-सी खड़ी अपना कर्त्तव्य निभा रही है। ये अंधेरे मं बतियों की घूरती आँखे कैसे अस्थिर कर देती है। यात्रा से लौटकर घर आते है...तो चटकती दोपहर में लौटना उसी तरह लगता है जैसे किसी ने आप को नग्न देख लिया हो। रात के अंधेरे में घर लौटने से-लौटने का अर्थ बढ़ जाता है। शायद कहीं-अपने में भरा-भरा लगता है कि हम लौट रहे है और हमारा अस्तित्व है।
अचानक घर जाना अच्छा लग रहा है। मन बाँध रही हूँ-अतीत के दिवा-स्वप्नों को त्यागकर वर्तमान में जीऊँ और सबसे उसी तरह मिलूँ-जैसे किनारों की मिट्टी झाड़ कर बहती हुई नदी सागर से मिलती है। मेरा सागर अन्ततः मेरा घर है। तुम तो कहीं बहती नदी की यात्रा में, क्षणभर के लिये खेमा बन गए थे...मन का...पर खेमे में जीवन तो नहीं काट सकते। इसीलिये-स्थिर-होने का पूरा प्रयास कर रही हूँ। मुख पर ताजगी ओढ़ने के लिये-चेहरे को भरपूर झाड़ लिया है और सारे शिकनौ को डांट पिलाकर सोने का आदेश दे रही हूँ।
रिक्शा धीरे-धीरे चल रहा है-वह भी शायद जान गया है कि मैं प्रकृतिस्थ होने का समय चाहती हूँ...अपनी गली के मोड़ पर पहुँच गया है रिक्शा...। वह आखिरी-कोने का-लाल-ईटों वाला घर मेरा है। किस अधिकार से कह रही हूँ 'वह घर मेरा है' और कहीं अंदर और बाहर एक युद्ध छिड़ गया है। शिकनो ने बड़ी-बड़ी आँखे खोलकर चेहरे को ढक लिया है। अंधेरा-जैसे गली की नुक्कड़ पर बाहे फैलाये लीलने को आ खड़ा हुआ है। तुम्हारे जैसे एक धुंधली-सी आकृति घर के बाहर खड़ी-किसी सपने की अतीन्द्रिय सुकुमारता का आभास दे रही है। क्षणभर के सौ-सौ गुलाब मुस्का उठे है। चेहरा खिल गया है-उन गुलाबों से-नहीं-नहीं यह नहीं हो सकता। मैं आँख मल-मल कर देख रही हूँ...हूबहू...तुम्हारी पीठ दिखाई दे रही है।
बहुत पास पहुँच गई हूँ। वह कल्पना की आँखों में बनी तुम्हारी आकृति घर के आँगन के पेड़ की प्रतिच्छाया मात्रा रह गई है।
घर का द्वार आ गया है...लगता है जैसे किसी पराये घर के बाहर खड़ी हिचकिचा रही हूँ-दस्तक देने में...। यह कैसा व्यवधान है मन का...। लगता है उस द्वार के पीछे-जैसे कोई अपरिचित-घर है-जिसमें अनजाने-चेहरे हैं जो मुझे नहीं पहचानते-जिन्हें मैं भी नहीं जानती...। पर-यही मेरी पहुँच की अंतिम सीमा है। यही वह किनारा है जहाँ मेरी ठाँव है। जहाँ मेरा खूंटा है। मालूम नहीं क्यों मैं अपने खूटे से उखड़ना चाहती रही हूँ...। क्यों कुछ अनपेक्षित-कामनाएँ-या आकर्षण-तितली की तरह अपने पीछे भागने के लिये ललायित कर लेता है। मृगतृष्णा की तरह-हम बेसुध-भागने लगते है...पर इन यायावरी दौड़ो का अंत कुछ नहीं होता-केवल ध्वंस होता है। केवल हताशा होती है।
क्या सोच रही हूँ...किन भँवरों में फँसी खड़ी हूँ-नहीं...मैं यहाँ से लौट नहीं सकती-प्राण...। और अपनी सीमा पर दस्तक दे देती हूँ...।
शेष फिर-
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