श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 80
प्राण...।
पता नहीं क्या था कि कल रात-भर तुम्हारी छाया मेरे आसपास मंडराती रही। पति के पास भी जैसे कोसों दूर थी। उन्होंने कहा-क्यो सोचती रहती हो-ऊलजलूल...और बस अनमनी-सी रहती हो...।
रात बड़ी भारी थी...जैसे समुद्र में ज्वार-भाटा उठ रहा हो...ऐसा तूफान-जो-सतह पर आने का नाम ही नहीं लेता। जैसे आदमी-भंवर में हाथ मारते-मारते थक जाय और किनारा न मिले...। मैं भी उस भंवर से कहाँ बच पाई। हम दोनो के बीच...एक छाया विद्यमान थी। वह मेरा मल्हार करते रहे और मुझ तक पहुँचने का प्रयास करते रहे...पर मेरे चेहरे के सारे भाव सायास थे...उस शरीर में आत्मसात होना कुएँ में डूबने जैसा लगता रहा...उबरने का प्रयत्न करती-किंतु कहीं अंदर ही अंदर अपने-आप को गंदा और उसकी दया के कीचड़ में लिथड़ा हुआ पाती। मेरी बेरूखी-देखकर वह रूआंसा हो जाता-खीजता भी-फिर सवालो के तीर...और कारणों के प्रश्नचिन्ह पर मेरा मुखौटा उसे कभी-इस बेरूखी के कारण तक नहीं पहुँचने देता। मैं अपने अंदर ही अंदर इस दोहरी ग्लानि के भंवर में डूबती-ऊबती रहती...मेरे लिये-यह कितना जानलेवा हो जाता-तुम अनुमान नहीं लगा सकोगे...।
सुबह उठी तो लगा चेहरे पर सरसो का खेत उग आया है। बच्चे और वे प्रश्न भरी निगाहो से देखते रहे। स्वयं को झकझोरती रही-कि मैं सबके चेहरों पर प्रश्नों के जंगल उगने दे रही हूँ...। सोचती-किसी एक व्यक्ति-व्यक्ति के लिये भी नहीं-एक छाया के लिये मैं अपना समाजत्व कैसे बिगाड़ सकती हूँ...। एक फुलवारी को-कैसे अपने स्वार्थ की चिंगारी में-सुलगा सकती हूँ...। ये प्रश्न मेरे लिये-एक अग्निकुंड की परीक्षा बन गये थे। मुझे बदलना होगा-अपने आपको इस स्वप्न-लोक से निकालना होगा। वायवी-बादलों को घटाटोप-आधियों में कैसे झौंक रही हूँ। क्या है यह मन-जो इतना बैमुरौवत होकर-सीमाये लांघने लगता है जबकि उसे मालूम है कि उसके आगे-केवल लहू-चूसने वाले सियारों का डेरा है। जंगल ही बीहड़ता हैं, काँटे है, खाईयाँ है और अलंहय पर्वत है।
मैं तुम्हें शहनाज का होते देख चुकी हूँ। अपने-समाने तुम्हारी आँखों के लाल-डोरो में-उसकी मेहंदी का खुमार का आभास है मुझे-मैंने मन से तुम्हें सौप दिया है। मन से प्रार्थना भी है कि तुम-उसके बने रहो-तुम्हें उसमें अपने प्रेम का प्रश्रय मिले, अन्विति मिले...और मंजिल मिले...फिर इस मन की उदंडता का क्या करूँ-जो हर-पल अपनी रस्सियाँ तुड़वा कर-भागने में लगा रहता है। उसे इन रस्सियों की गुँझ लौ में उलझ जाने में ही सकून मिलता है।
कौन-सी साध से साधू अपना मन...शायद कोई वैध बता सके...। तुम तक भागकर-इसे वापिस ही लौटना है-यह जानता है-फिर भी इस निष्फल दौड़ में जीतना चाहता है।
क्यों हम निर्बाध रूप से अवैद्य ही करने में सुख पाते है। निषिद्ध फल ही क्या हमें आकर्षित करता है। क्यों नहीं हम-संतुष्ट होते उसे लेकर जो हमारे पास हैं। हमारी थाती है। उपलब्धि है और हमारा सुख भी।
अगर हम इस संयम को पा लेते-तो यह सारी माया-रचना ही न होती। शायद यहीं संसार की-माया है जिसमें हम जन्मात उलझे रहते हैं।
और क्या लिखूं-
- तुम्हारी
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