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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 81



मेरी इस हताशा को गहराने के लिये-यह रोज आने वाले समाचार पत्र है-जिनमें आजकल केवल युद्ध की खबरे और मृतकों की संख्यायें होती है...। इन सब का लेखा-जोखा क्या संभव है! युद्ध है तो मृत्यु भी है...। इन सब के बीच-आप कहीं एक के साथ जुड़े रहते हो-बाकी खबरे बेमानी होती है। अगर आप के किसी का नाम उन संख्याओं में नहीं है तो बाकी सब एक गणना है, एक नम्बर है...नाम भी महल नहीं रखता-यद्यपि यह किसी मानवीयता की निशानी नहीं है। मैं प्रयत्न करती हूँ-उस एक-एक नाम के-काल्पनिक परिवारों से उनके माता-पिता-पत्नी-प्रेमिका-मित्रों-से-जुड़ने का। उनकी मानसिक स्थिति का अनुमान लगाने का-पर फिर भी नहीं जुड़ पाती-कहीं भी-किसी से-क्या यह उचित है। पर प्राण! मुझे नहीं जुड़ना-किसी और से-। जब कल्पना में उनके अपने मन को-इस पूरी कायनात का मानदंड तो नहीं बना सकती न।

युद्धों में सीमा-अतिक्रमण ही हिंसा का कारण बनती है। मैं यह हिंसा घर की सीमा में नहीं होने दूँगी...। नहीं...और सोच रही हूँ कि आज के बाद शहनाज से भी न मिलूँगी...और न ही समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ मेरी चेतना को मथेगी...तभी मैं कहीं अपने-आप में सार्थक होकर जी सकूँगी-पर...काश! मैं ऐसा कुछ कर पाती। सुबह का लिया हुआ निर्णय...रात तक बिखर जाता है। मन को थपथपा कर सुलाने का उपक्रम करती-करती-मैं कहीं स्वयं उन स्वप्नों में सो जाती हूँ...जिसमें-मैं-कभी-कभी-किन्हीं खुले मेदानों में तुम्हारा हाथ थामे तुम्हारे साथ चल रही होती हूँ उन्मुख, स्वछंद। और तुम्हारी दूध-धुली हँसी-कहीं फब्बारों से ऊपर तक उछलकर मुझे सरोबार कर रही होती है। उन फब्बारों की पतवार पकड़े हम न जाने-किन-किन अनजान पगडंडियों पर चढ़ते-उतरते रहते हैं-जहाँ न काँटे होते है न पत्थर। न मैं होती हूँ और न तुम...उस मदभरे बसंत में केवल फूलों से लदी-डालियाँ होती है...और उन पर मँडवाने वाले मद-मस्त भँवरे। किस ने खोजा होगा-फूल और भंवरे का पार-किस ने देखा होगा-तितलयों को फूलों के रस से-अपने पंखों में रंग भरते हुये जो फूलों से भी अधिक अभिराम और भव्य हो जाते हैं क्योंकि उसमें प्रेमतत्व', आत्मसात हो जाता है और उनका एक अपना रंग-निर्मित हो जाता है। जो शाश्वत रूप से बनाये सात-रंगों को भी लांघ जाता है और एक अलग ही अपने रंगों की दुनियाँ बना डालता है!

तितली की स्वछंदता क्या मुझे नहीं मिल सकती कि मैं उड़ सकूँ और सबकों मेरा केवल प्रेमरस में डूबा हुआ सहस्त्र-रंगों वाला रूप ही दिखे...।

सबका मन केवल मुदित हो-प्रमुदित हो। उसमें बंधन और ईष्या शामिल न हो...।
काश! ऐसा हो सकता-प्राण-युद्ध में तुम्हारा बाहूबल बढ़े तुम्हारा वीरता को मेरा प्रणाम।

- तुम्हारी

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