श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 82
प्राण...।
आज मालूम नहीं किसे संबोधित करके ये पत्र लिख रही हूँ। क्योंकि जिस देह के साथ हमारा अस्तित्व है, उसी के साथ सारे संबोधन जुड़े होते है। देह के बाद केवल एक आभास, एक अतीन्द्रिय-सा सूक्ष्म-भाव मन में बना रहता है।
जीवन में एक चाह थी कि कभी ये सारे पत्र संचार के लाघव से नहीं-एक पुस्तक के माध्यम से अनुवादित होकर तुम-तक पहुँचेगे तो मेरे परिप्रेक्ष्य से नहीं-केवल अपने व्यक्तित्व के दर्पण के माध्यम से-शायद तुम किसी नारी के स्वरूप को पहचान सकोगे। वे क्षण शायद सुदूर कहीं भविष्य के गर्भ में है। मेरे चाहने और न चाहने से कुछ नहीं होगा। बीत गया लौटकर नहीं आता।
समाचार पत्र के किसी एक कोने में तुम्हारा नाम पढ़ने की ललक सदैव बनी रही कि कहीं युद्ध की किसी वीर कहानी के तुम नायक बन कर छपो। छक्के छुड़ाने वाली-तुम्हारी वीरता कहीं तुम्हारे नाम की सुर्खी बनकर-रात के अंधियारे में हवाई बनकर उड़े, और फुलझड़ी-सी झड़-झड़ कर-घर आँगन को आलोकित कर दे। लेकिन वह इच्छा थी।
मैं चाहकर भी-अपने पास लौट नहीं पा रही थी। अपनी कुटी में-मैं समा नहीं पा रही थी। मेरी कल्पनाओं के पास धरती नहीं थी। मैं वापिस लौटना चाह रही थी-पर यह लौटना बड़ा-धीरे-धीरे हो रहा था। जब दीवार से माथा टकराता-तभी लगता-इसके आगे-सीमा है-L.O.C...। पर कौन मानता है सीमाओं को-। मन से तो कभी भी स्वीकार नही होती। पता नहीं किस की प्रतीक्षा थी। मन कहीं मरा-मरा-सा रहने लगा हैं। किसी निविड़ अंधकार में घिरी-घिरी रहती हूँ-आघात...।
क्या कहूँ और...
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