श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 83
प्रिय प्राण...।
हिम्मत बाँधती हूँ कि शहनाज से मिलूँ एक बार शायद-तुम्हारा कोई समाचार मिले...। पर जैसे शहनाज से मिलने का साहस भी चुक गया है...।
तुम्हें भेजे हुये पत्र न तो कभी वापिस आये और न ही पता चला कि वे कभी तुम तक पहुँचे भी कि नहीं। किंतु मैं उनमें त्रासित संवेदना के संग जागती रही-हर रात। मेरे अंदर युगों का त्रास है और जन्मों की प्यास...प्यास का उपकरण और ध्येय आज तक नहीं मालूम...घड़े के पैंदे में बची बूँदों से त्रास नहीं मिटी शायद इस जन्म में। प्यास तो अंदर होती है जो हम लेकर आते हैं-बाहर की बूँदों से कैसे मिटे...।
मैं जानती हूँ मुझे इस तरह चाहे वायवी पार करने का भी अधिकार नहीं है। फिर भी वर्जित गलियों में जाने का अधिकार तो कोई नहीं छीन सकता न। उस पर मैं यह भी नहीं कह सकती कि तुम उनका ध्यान रखना-या उन्हे कहूँ कि तुम्हारा ध्यान रखे। चाहें तुम अलग-अलग देश में-अलग-अलग पोस्ट पर हो-पर मैं जानती हूँ-तुम रोज मिलते हो। मैं तुम दोनों को आमने-सामने बैठा देखती हूँ। और तुम दोनों जैसे एक ही आयने में झांककर अपना अक्स ढूढ़ते हो। मैं तुम दोनों के बीच में होती हूँ-और तुम दोनों को देखती हूँ। मेरे दोनों ओर-बिना आँख मिलाये-बिना हाथ मिलाये मुझसे गुत्थम-गुत्था होते हुये किसी हैरत में डूबे हुये-भौचक...।
जानते हो मैं कितना तिलमिला जाती हूँ दोनों के बीच। मुझे राह नहीं मिलती-केवल दाह मिलती है। क्या करूँ-यह गलियाँ, ये वर्जित चौराहे मैंने खुद चुने है।
यहाँ कि आर्मी वाइवस को शायद यह आत्म ग्लानि न होती हो-वह दिन भर-रात भर दूसरों की बाहों में झूलती अपने-आप को स्खलित करती चैन की नींद सो जाती होगीं-पर मैं नहीं सो सकती...मैं नहीं जाग सकती...मैं अपने-आप से उऋण नहीं हो पाऊँगी...। तुम जहाँ भी हो, जिस पगडंडी पर चढ़ उतर रहे हो। बस स्वयं को बाँधकर रखना। फिसलने लगो तो कहीं किसी राह में उगी झाड़ी को गले लगा-लेना। वहाँ-मैं ही हूँगी कहीं-तुम्हें थामने के लिये...। मैं तुम्हारे निकट हूँ-इस मोहपाश में बंधी हूँ-चाहकर भी यह अवैध पाश छूटता नहीं है। अवैध शराब की तरह-ओठ जो रख दिये है एक अनजान पंखुड़ी पर...। एक अनजान राह जो पकड़ ली है जिस के चौराहे पर खड़ी अपनी दिशा-निश्चित नहीं कर पा रहीं हूँ। दाँए मुडू कि बाँए-उत्तर कि दक्षिण...। लगता है किसी राह के अंतिम छोर पर भी-मेरी मंजिल नहीं है। बेघरों की मंजिल नहीं होती, केवल भटकी हुई राहे होती है। बंजारों का कोई ठौर नहीं होता-उनका यही नियति होती है। बिन दीवारों के घर नहीं खड़े किये जा सकते हाँ ढाये जा सकते है-। मैं विनाश की राह पर हूँ जिसमें केवल ढहना लिखा है-खड़े रहना नहीं। कौन-सी स्नीचरी-दशा है मेरी नियति मे, जो मूल से भटका रही है। जो हर दिन और भी दिशा-हीन किये जा रही है...। राह भटक गई है...। हृदय किसी अनहोनी आशंका से त्रस्त रहता है-कैसे संभालू...।
बस कुशल मंगल आती रहे तुम्हारी! प्रयत्न करूँगी-शहनाज से मिलने की...।
ढेर सारा प्यार-
- तुम्हारी
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