श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 84
प्रिय प्राण...!
आज कुछ बोल रहा है अंदर कहीं चेतना पर कुछ पंक्तियाँ दस्तक दे रही है...तुम्हें लिखने का मोह संवरण नहीं कर पा रही हूँ...।
बस्तियों से वीरानों में लौट जाते थे हम
अब तो वीराने भी हम को डराने लगे हैं
परायों के ही चुभते थे नश्तर अब तक
अब तो अपने ही-काँटे चुभाने लगे हैं।
धर्म डिगता था, ईमान बिगड़ता था
अब तो विश्वास भी डगमगाने लगे हैं
आस्थाओं का होता था-बड़ा सम्बल
अब तो मंदिर भी-मन को गिराने लगे है।
सिर झुकाने को ढूँढते हैं-हम एक मूरत
गम भुलाने को ढूँढते हैं-हम एक सीरत
आस किस से करे-किस से करे शिकायत
अब सब के मुखौटे-हमें डराने लगे हैं।
इस मन की हालत तो कुछ भी नहीं,
सारा शहर ही जंगल हुआ जा रहा है।
कौन-सा शहर है और कौन-सा जंगल
अब यह प्रश्न ही हम को-दहलाने लगा है।
हर कोई राजा बना-हर कोई शेर है।
हर कोई शक्ति, हर कोई-दंभी बड़ा
हम उससे बड़े-वह हमसे बड़ा
सियारों की बस्ती में गीदड़ गुर्राने लगे हैं।
आज इतना ही-
- तुम्हारी
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