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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 85


मेरे अनाम,

मैं न जाने किन मंझधारों में डूब-उतर रही थी-अपने ही संकोच और दुविधाओं को लेकर। तभी उस दिन शहनाज आई...घर पर-चहकती हुई। उसके चेहरे पर जैसे बसंत उग आया था-हरा-भरा-सलौना-सा-उसके गालों को अपनी लाली से-सीजता-सा।

उसने फटाक से तुम्हारा पत्र पर्स में से निकाला और बोली-ये देखिये-उनके हाथों का लिखा पत्र-और उसका सारांश सुनकर तो मैं अंदर-बाहर से आलोकित हो गई थी। किसी ने मेरे साँझ-सवेरे फूलों से भर दिये थे। शहनाज की खुशी छलकी पड़ रही थी। मैं जरा अपने-आप को संयत होकर-खुशी प्रगट कर रही थी। शहनाज की सी-खुश होने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं थी। पर मेरा रोम-रोम दिपदिपा कर मेरे चेहरे पर उभर आया था। शहनाज के दोनों हाथ भींचकर मैंने उसे गले से लगा लिया था।

शहनाज! तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम्हारा दिलावर जिंदा है। आग में से प्रह्लाद की तरह निकल आया है। सुख के वे कोमल-क्षण उसके कँधे पर ठहरकर पिघल गये थे। शहनाज बड़ी आश्वस्त-किसी दीपमाला-सी दमक रही थी जिसे आंधी के भयावहता बिन छुये निकल गई थी। मैं इस क्षण 'में सुखी हूँ' कहकर स्वयं को सुखी कर रही थी।

पत्र का सारांश था-''मैं मिलिटरी हस्पताल में घायल पड़ा हूँ शहनाज और मुझे कम से कम तीन माह का आराम करने का आदेश है। मेरी सारी चेतना-तुम्हारी कल्पना से-मानो लौट आई है। यूँ विलग होकर, ठहरकर युद्ध की खबरे सुनना बड़ा जानलेवा लगता है शहनाज। मेरे साथी संगीन तोपों के मुँह से निगले जा रहे हैं और मैं अपने घावों पर पट्टी बाँधे पड़ा हूँ...न जाने किन-किन दुआओं ने मेरे प्राणों की रक्षा की है। आज सबसे सुखद-समाचार-तुम्हें दे रहा कि कहा-कि अब हमारे घाव भर गये है। केवन उन शब्दों से ही मैं उनकी यातनाओं की कल्पना कर सकता हूँ-जो उन्हें मुझे यहाँ बुलाने की एवज में दी गई होगी।

शहनाज! शायद हम जल्दी ही मिल सकेंगे। आशा है तुम अपने काम में व्यस्त रख पा रही होगी अपने आपको। मेरी चिंता न करो-मैं शीघ्र ही स्वस्थ होकर वापिस आ जाऊँगा।

मिसेज सरकार को मेरा सादर अभिनंदन देना। कहीं इस सब में उनके आर्शीवर्चनो की भी शक्ति शामिल है।

तुम्हारा अपना-

दिलावर


अन्ततः

इस खुशी के झूठ की तरह पाँव नहीं थे।

दो तीन दिन बाद ही मेरी अनुपस्थिति में आई डाक में जैसे छिपाकर रखा गया एक लिफाफा मिला था। वह शहनाज का था।
''युद्ध में घायल जिस मिलिटरी अस्पताल में कुछ घायल सैनिक पड़े थे, उस अस्पताल पर कल रात शत्रु ने बमबारी की और उन हताहतों में मेरे सरताज का भी नाम है''।

शहनाज यह समाचार मुझ से भी पहले चलकर-उन तक पहुँच गया था। मैं उनकी अन्यमस्कता और सामने न पड़ना-देख रही थी-पर पहले सोचा-वे मेरे प्रश्नों भरे व्यक्तित्व से नाराज है इसलिये यह दूरी बनाये हुये है।

मुझे यह नहीं मालूम था कि वह मेरे पीपल बन रहे है। आकाश बन रहे है। फिर भी व्यथा उन दीवारों से टकरा नहीं सकती थी। केवल अंदर घुट सकती थी। वह छोटा-सा कागज का टुकड़ा-मेरे संसार में प्रलय की आग बनकर-मेरे अस्तित्व को लील रहा था।

शाम को वह टुकड़ा मेज पर देखकर वह मेरी ओर झुक आये थे और मेरा त्राण बन गये थे। फिर भी में उद्दाम नदी का उफान बनकर नहीं बह सकी। कैसे बहती! नदी की उद्यामता सब कुछ बहाकर ले जा सकती थी। वे मेरा किनारा बन गये थे और मैं एक शांत नदी। मेरे सामने-तुम्हारे नाम के नीचे खिंची लाल-लकीर ने मुझ जैसे चारों ओर से बांध लिया था-चारों ओर एक सकता छा गया था। किसी ने सारी प्रकृति का रस सोख लिया था। सारी कायनात एक सूखे उठल सी-निर्भाव खड़ी थी...।


बस शब्द चुक गये हैं 'किसे लिखूँ-

-  एक वायवी-कल्पना

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