श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 86
प्राण मेरे...।
नहीं जानती, अब यह पत्र तुम्हें क्यों संबोधित कर रही हूँ...नहीं समझ पा रही हूँ कि किसे सम्बोधित करूँ...। तुम्हारा यह इकलौता लिखा हुआ पत्र और उस पर-इसे उस समय न पढ़ने का प्रण-आज मेरी रही-सही धैयवर्त्ता का शत्रु बन रहा है। तुम्हें अपना भविष्य दिख गया था शायद। इस पत्र के तुम्हारे संबोधन-हीन शब्द-तुम्हारे देह हीन-होने पर आज देहवान हो उठे हैं।
"Leave all for love
Yet hear me, yet
One word more thy heart behoved
One pulse more of firm endeavour
Keep thee today
Tomorrow, forever
Free as au Arab, of thy beloved-
I Looked again-
I thought them hearts
Of friends to friends unknown
Tides that should warm-
each neibhouriup life
Are locked in sparkling stone"
-With Regards
Dilawar
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