श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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सौ-सौ दंश
सुदर्शन प्रियदर्शिनी
कहानी तो छपी थी निशा की-एक प्रतिष्ठित पत्रिका में-किंतु नौकरी दिनेश की कगार पर आ लगी थी।
निशा ने तो कल्पना भी नहीं की थी, कि उसकी कहानी इतनी जल्दी छप जायेगी और छपने के साथ ही दिनेश के बॉस के हाथों चढ़ जायेगी।
ये कहानी उस उबलते लावे की निस्तृति थी, जो उसके अंदर ही अंदर उबलता रहता था और उसे झुलसाता रहता था। उसके मन के फफोले ही फूट पड़े थे इस कहानी में...।
परिणाम तक तो उसकी सोच गई ही नहीं थी...। निशा की तरह हवा भयभीत-सी आले में रखी मोमबत्ती-सी कँपकपाने लगी थी...।
सोचा जाय तो दिनेश के बॉस का उस कहानी को पढ़ने का कोई सबब ही नहीं बनता था। कहाँ उसका लम्पट बॉस-लंफत-ऐय्याश और कहाँ हिंदी की वरिष्ट पत्रिका में छिपी उसकी कहानी। साहित्य और बॉस का कहीं कोई ताल-मेल नहीं था...।
पर हुआ यों कि बॉस को एक चम्मचे की नजर कहीं उस कहानी पर पड़ गई। निशा की कहानी ने उतना-नहीं जितना डंक मारा निशा के चित्र ने। झटपट पहचान ली गई। अन्यथा नाम से कौन इतना सरोकार रखता है।
किशन चहकता हुआ पत्रिका को दिनेश की मेज पर बिछाकर बोला-पट्ठे तेरी वाइफ की कहानी छपी है-तूने बताया तक नहीं कि तेरी पत्नी इतनी कमाऊँ-होने के साथ-साथ एक लेखक भी है। बड़ा छुपा रूस्तम निकला और खीं-खीं करके हँसता रहा।
दिनेश को यह तो मालूम था कि उसका बॉस उसकी पत्नी की अच्छी नौकरी की वजह से खार-खाता है और कई बार उल्टी-सीधी फबतियाँ भी कस चुका है। तुम्हारे घर में तो दो-दो पगार आती है। कभी दिनेश के कपड़ों को देखकर व्यंग करता-अरे वाह! क्या जोड़ है-यह पसंद तुम्हारी है या निशा की...। दिनेश ये बात सुन-सुन कर तिलमिला रहता...।
दिनेश का भरा-पूरा सुंदर व्यक्तित्व कहीं बॉस को अपने अधेड़पन के लिये शायद चुनौती-सा दिखता था...।
उस पर आज यह किशन पैदा हो गया है। उसे लगा जैसे कमरे में जलन की बदबू आ रही है।
किशन ने देखा-दिनेश बिल्कुल चुप हैं। पर वह कहाँ चुप होने वाला था...पार्टी हो जाय यार...इस बात पर...। दिनेश ने झटके से-उससे पत्रिका छीन ली। दिनेश बात को दबा देना चाहता था। वह जानबूझकर अपनी फाइल पर झुका रहा। उसे लगा-किशन ने शायद कहानी पढ़ी नहीं है। बिना पढ़े ही वह इतना उछल सकता है।
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