श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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इस बात को समझते देर नहीं लगी कि किशन ने कहानी को पहले से ही-सारे डिपार्टमेंट में उड़ा दिया है। अब कहानी सारे डिर्पाटमेट में आप ही उड़ रही थी। एक दो प्रोफेसर और विद्यार्थी भी उसे बधाई दे गये थे...। अच्छा है वे बिना पढ़े ही उसकी प्रशंसा कर रहे थे...। दिनेश को स्पष्ट हो गया कि अब वह इस बवंडर में हाथ-पाँव मारकर भी किनारा न पा सकेगा...। वह अपने-आप से बचता फिर रहा था। लैब में गया तो फलास्क हाथ से गिरकर चूर-चूर हो गये...। लड़कियाँ आई-सर! कहकर बुलाया तो वह अनमना-सा कुछ जबाव ही नहीं दे पाया। बाहर जाते-जाते उनकी खिल्ली-भरी हँसी की अनुगूँज उसे देरतक उधेड़ती रही। उसे लग-निशा की कहानी ने उसे सबका जैसे मुजरिम बना दिया है। कठघरे में बँद-सीखचों पर सर पटकता हुआ-एक अपराधी।
एकाध बार बीच में निशा पर भी उसे गुस्सा आया। क्यों किया उसने ऐसा। सारा डिपार्टमेंट हिलाकर रख दिया। यों उसने स्वयं कहानी को डाक में डाला था। कहानी की सरसरी नजर से पढ़ा भी था पर उसे क्या पता था कि उस बँद लिफाफे में उसको सूली पर टँगने की तामीर की गई है।
तभी चपरासी ने आकर सलाम ठोका-साहब ने याद किया है। दिनेश ने कनखियों से चपरासी की आँखों में तलाशा। क्या चपरासी भी जानता है-पर वहाँ उस उन्माद की कोई झलक उसे नहीं दिखी...।
दिनेश को लगा-उसकी सारी देह पथरा गई है। किसी ने जैसे संकिग पंप से उसका सारा रक्त सोख लिया हैं। अजगर-सा लपलपाता बॉस का सारा वजूद जैसे सारे बरामदे में फैल गया है। बरामदे में ही नहीं मानो उसकी लेब से सटी हुई सीढ़ियों से उतरकर-साँप-सा बलखाता सारे कैम्पस को लील गया है। अब वह कैसे लाँघे उस फैले हुये अजगर को...। अंधेरे और बेचैनी की सांकल ने उसके पैरों को जकड़ लिया था। वह न हिला-न डुला-बस बुत्त बनकर खड़ा रह गया...।
चपरासी दुबारा आ गया। दिनेश का निस्तेज और पीला चेहरा देखकर-चपरासी भी हैरत में था...। दिनेश हड़बड़ा कर चपरासी के पीछे हो लिया...।
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