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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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साहिब का तमतमाया-घृष्टता से लिपा-विद्रूप चेहरा उसे पस्त किये था...।

अजी! आप की पत्नी हम पर छीटाकशियाँ करे-तरह-तरह के आरोप लगाकर हमारी आवभगत करे और हम उनके साहब-जादे पति के लिए सेनेट-मैम्बरस के तलवे चाटते फिरे...! तुम नहीं जानते तुम किसके सामने खड़े हो...।

दिनेश ने गला साफ किया और अपने आप को व्यवस्थित करते हुये-अपने आप में बुदबुदाया-वह अच्छी तरह जानता है कि वह किस काइया और घटिया आदमी के सामने खड़ा है। एक ऐसा व्यक्ति जो दूसरों को केवल कुचलना जानता है।

जानते हो यह तुम्हारा बॉस कपूर है-जो चाहे तो समय का रूख अपनी दिशा में मोड़ ले...और कपूर साहब ने एक हिकारत भरी नजर से उसे पूरा गला खंखारा और डस्टबिन में थूक दिया। तोप-सी गोली दागते हुये बोले-सोच लो-नौकरी चाहते हो या अपनी निशा से कहते हो कि आकर-हमसे बकायदा माफी माँगे...। वरना...।

वह इस वरना का अर्थ अच्छी तरह से जानता था। बॉस दीवार पर लगे डॉट बॉर्ड पर अपना नोकीला डॉट दागकर-वापिस मुँह में पाईप दबाकर-अपनी सांप-सी फुंकार-सा हुक्का गुड़गुड़ाने लगे...।

दिनेश ने कुछ नहीं कहा...। वह जाने के लिये मुड़ा। उसने गर्दन आधी घुमाकर पीछे देखा...और...चाहा शेर की तरह अपने पँजे फैलाकर कपूर साहिब का मुँह नोच ले।

उसका शरीर निचुड़े हुये गन्ने के फुग्गे-सा जैसे सड़क पर लौट रहा था। एक हारे हुये सिपाही की तरह वह बाहर निकला-जिस की वर्दी किसी संगीन जुर्म के आधीन उतरवा ली गई हो...। दिनेश दाँत पिसता बाहर निकल आया। कपूर साहिब के शब्द उसे आरे की मानिद चीर रहे थे। वह जानता था निशा को नौकरी छूट जाने का समाचार देना आसान...पर माफी मांगने के लिये कहना भागीरथ की गंगा लाना था।

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