श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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निशा ने भी यह कहानी कोई गाहे-बगाहे नहीं लिखी थी। उसके पीछे छिपे हुये नश्तर और विषदंतों के दंश बच्चों और निशा ने खूब झेले थे...।
निशा उसकी इस नौकरी को लेकर कई बार झींक चुकी है। वह सदैव कहती-यह भी कोई नौकरी हुई-जिसमें चौबीस घंटों की गुलामी-तलवे चटाई और चम्मचागिरी के अलावा कुछ नहीं...। मैं होती तो अब तक ऐसी नैकरी को ठोकर मार चुकी होती। ऐसी नौकरी पर सौ फटकार जो आदमी से उसे आद्रमियत छीन ले।...
दिनेश उसे समझाता-मेरी मजबूरी समझों निशा-नौकरी नहीं छोड़ सकता-घर के लिये और घर नहीं तोड़ सकता-नौकरी के कारण...। बॉस की किसी बात को टालना मेरे बस की बात नहीं है। मुझे कन्फर्म होने दो-फिर में यह सब बात नहीं होने दूँगा...।
निशा दाँत पीसकर रह जाती। वह जानती थी दिनेश सीधा है। उससे प्यार भी करता है। लेकिन सबसे पहले वह एक पुरुष है। एक आम हिंसक पुरुष जिस के मुँह पर खून लगा रहता है-नये-नये शिकार सूंघने का। वह अच्छी तरह जानती है कि इन की अनुसंधानिक (research four) यात्रायें क्या होती है...और वहाँ क्या होता है। डिपार्टमेंट की नयी-नयी लड़कियाँ, टेकनिकल स्टॉफ का एकाध मेम्बर, रिचर्च की बनावटी पोटली कहीं दूर बियाबान जंगल का कोई सरकारी रेस्ट-हाउस या किसी भड़कीले शहर का कोई बड़ा होटल...। जहाँ शराब-शबाब और जुआ...और रात के सिनेमा की भद्दी-अश्लील फिल्में-उन लड़कियों को बगल में बिठाकर देखी जाती है। निशा जानती थी कि यह सब केवल बॉस का ऑर्डर नहीं होता-कहीं अंदर ही अंदर सबका खूंखार जानवर जीभ लपलपा कर बॉस को उकसा रहा होता था। पैसा सरकार का, आडॉ टेकनिशियो और अनुसंधान को (researchers) की और मौज-मस्ती बॉस और उसके चम्मचों की। लड़कियों के थीसिस को नई खोज का जामा पहनाने का एक सुनियोजित नाटक...। निशा यह सब देखकर बिफर-बिफर जाती थी।
कई बार ऐसा हुआ कि सारा परिवार कहीं जाने के लिए तैयार खड़ा है। स्कूटर भी बुलवा रखा है जाने के लिए। तभी अचानक धूल उड़ाती-डिपार्टमेंट की जीप...स्कूटर को निगलती-सी दरवाजे पर आ धमकती।
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