श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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ड्राइवर जीप से उतरकर सलामी भरता-और तोप दागता-साहिब ने बुलाया है-।
दोनों एक दूसरे का मुँह ताकते रह जाते। शब्द दोनों के बीच निशब्द लाश बनकर पसर जाते। दिनेश की बेचारगी और असहायता-निशा के समक्ष एक अपराध बन जाती।
निशा का जी चाहता कि दिनेश चपरासी से कहे-साहिब को कह दो-हम कहीं बाहर जा रहे है। कल मिल लेंगे। लेकिन दिनेश का दब्बूपन और कायरता जीप में बैठकर निशा और बच्चों के मुँह पर धूल उड़ाती फुर्रर हो जाती। तब ऋतु और मनीश-निशा से तरह-तरह के सवाल कर उसे और भी चस्त कर देते।
एक बार निशा ने सुना-मनीश ऋतु से कह रहा था-मैं बड़ा होकर पापा के बॉस को गोली मार दूँगा। हमें कभी पापा के साथ घूमने भी नहीं जाने देता। कई बार दिनेश दफ्तर के बाद घर ही नहीं लौटता। छः साढ़े छः बजे संदेशा आ जाता-साहिब दोपहर को टूर पर चले गए है-रात को दस-ग्यारह बजे तक लौटेगे। निशा का जी चाहता-चपरासी के बाल नोच ले। हर दूसरी-चौथी शाम यही होता...। अगर नहीं होता तो दिनेश वीकएंड में घर नहीं होता...। शुक्र की शाम ही उनकी पलटन किसी मौज-मस्ती की खोह में उतर जाती। रह जाती-निशा झींकने के लिए। निशा नौकरी करे, बच्चे संभाले या दिनेश की दी हुई, इस अन्यथा टेंशन से गुजरे...।
वह दिन पर दिन चिड़चिड़ी और रूआँसी होती जा रही थी। एक ही चीज उसे धुरी पर टिकाये थी कि दिनेश उसे सच्चा-झूठा कैसा भी-पर प्यार करता है। हर औरत की तरह वह भी इस सच्च को मानकर जीती थी।
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