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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


१७१. ऐसा सरल समय भविष्यमें नहीं मिलेगा। भविष्यमें ऐसे मनुष्य होंगे कि हम कहते हैं वही धर्म है, हमें ही धन दो, हमारी ही सेवा करो। ऐसे वह देनेवाला और लेनेवाला दोनों ही नरकमें पड़ेंगे। ऐसा अनुमान होता है कि नरक में भी शायद जगह न रहे। जैसे वर्तमानकालमें गांधीजीके आंदोलनसे सरकारकी जेलमें जगह नहीं रही। इसी तरह नरकादिकी जगह भी सीमावाली है।

१७२. मैं बांकुड़े में बीमार था, मेरेसे कुछ चेष्टा भी नहीं होती थी। तब भी मेरे सामने इन लोगोंका जितना अभ्यास होता था, उससे चार आनेभर भी मेरे वहाँसे आनेके बाद नहीं रहा। मेरे सामने जितना साधन होता था, उतना भी नहीं हो रहा है, फिर मेरे बाद होगा, ऐसी आशा कैसे की जाय।
प्रश्न-काम बहुत है इसे आप घटा दें।
उत्तर-मैंने तो आपके ऊपर ही कामका भार सौंप रखा है, आपके जाँचे जिस तरह कर सकते हैं, किन्तु काम बाधक नहीं मन ही बाधक है। कामको घटानेकी मैं कैसे कहूँ मैं तो कामको बहुत अच्छा मानता हूँ, मैं यदि काम करूं तो कामको और बढ़ाऊँ।

प्रश्न-मेरा रास्ता कैसे बैठे? इतने काममें फुरसत नहीं मिलती।
उत्तर-भगवान् में प्रेम होनेसे स्वत: ही रास्ता बैठ सकता है।

१७३. केवल ब्याजके रुपयेपर काम चलानेवालेके वंशका नाश हो जाता है। कुछ दिन तो ब्याजसे काम चलता है फिर रुपया खर्च हो जानेसे उनके बालक काम बिना निकम्मे हो जाते हैं।

१७४. जिस जातिके पास व्यापार और मजदूरी अर्थात् कारीगरी रहेगी उनकी उन्नति होगी, उनके धर्मकी वृद्धि होगी क्योंकि उनके पास धन होगा।

१७५. सारी दुनिया आलसी बननेको तैयार है। मुक्तिमें आलस्य ही बाधक है।

१७६. परमेश्वरकी दयासे सत्ययुग प्राप्त होता है, प्रकृतिके संगसे नीचे उतरता है।

१७७. पानी जैसे नीचे जाता है वैसे ही जीवोंका नीचे गिरना तो सहज है, ऊपर जानेमें ही पुरुषार्थका काम है।

१७८. लोग यदि हमें नहीं चेतावें तो हमारेमें अवगुण रह जायेंगे। लोगोंकी हमारे ऊपर बड़ी भारी दया माननी चाहिये।

१७९. बड़ाई करनेवाले हमें चारों तरफसे ठगते हैं सांसारिक धन तथा हमारे मनमें प्रसन्नता हो जाय तो हमारा परमार्थका धन हर लेते हैं।

१८०. व्यापार
(१) अत्रका व्यापार, रुई, वस्त्र नं० १
(२) धातु, रस, तांबा, पीतल, सोना आदि नं० २
(३) ब्याज (४) नील, लाख, टसर ये अपवित्र व्यापार हैं।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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