गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
श्रद्धाके अनुसार फल
एक आदमी ध्यान की बात कहने की कहे, दूसरा प्रेम की बात कहनेकी कहे, इस स्थितिमें ध्यानकी बात कहनेमें उत्साह कम हो जायगा, अगर अब मैं ध्यानकी बात कहूँ तो वह भाव नहीं आयेगा, यह भी एक समझनेकी बात है। भक्तको यदि यह पता लग गया कि स्वामीकी यह इच्छा है तो उसी समय उसका मन बदल जायेगा। ध्यानके विषयमें कभी-कभी मुझे रुकावट हो जाती है। उसका कारण खोजनेपर मनमें यही आता है कि कोई नहीं सुनना चाहनेवाला बैठा है। प्रश्न पूछनेपर तो बात स्पष्ट है ही। ध्यानकी बात बहुत कम होती बातोंमें भी होती है। अनधिकारीके सामने पूरा भाव नहीं कहा जा सकेगा, वाणी रुकेगी। एक भाई भगवन्नामकी बात कहनेकी कहे, दूसरा समाज सुधारकी कहनेकी कहे तो फिर भगवन्नामकी बात नहीं कही जायगी। अगर और लोगोंके आग्रहसे कहना पड़े तब भी पूरा भाव नहीं कहा जा सकेगा। भगवान् के प्रेम प्रभावकी बातोंमें जो बाधा आती है उनको दूसरे लोग नहीं समझते मेरे रुकावट होती है। एक आदमी समाज सुधारकी बात कहनेकी कहे, दूसरा सदाचारकी कहनेकी कहे इनमें कोईमें रुकावट नहीं होती। सार्वजनिक विषय हैं, सबके लिये हैं। महत्त्वकी बातों, अन्तरंग बातोंमें रुकावट आती है। किसीको नींद आ जाय, उठकर चला जाय तो रुकावट आ जाती है। खाँसी आ जाय, छींक आ जाय, टेलीफोनकी घंटी बजे तो भी रुकावट होगी। स्वाध्याय होता हो, उस समय छींक आ जाय, कोई लाँघकर चला जाय तो बन्द करनेकी शास्त्रकी आज्ञा है। वेदका तात्पर्य जाननेवाला पुरुष होता है तो स्वाभाविक बन्द हो जाता है, रुक जाता है। बिजली कड़के, मेघ गरजे तो वेदोंका अध्ययन रोक दे। इस समय ऋषियोंका भाव रुकता है। इसलिये मर्यादा बतानेके लिये रोक देनेकी आज्ञा है। प्रभावकी बातें हो रही हैं, एक आदमीको निद्रा आ रही है, यदि वक्ताकी दृष्टि उधर चली गयी तो रुकावट होगी। वक्ता बहुत जोरदार हो, कारक पुरुष हो, यदि सुननेवाले उसे साधक मानते हों तो साधकका-सा असर पड़ता है। वत्ता यदि साधक हो और सुननेवालोंकी दृष्टिमें यदि वह कारक पुरुष है तो उनपर कारक पुरुषका-सा असर पड़ेगा। भगवान् भी नहीं होता। भीष्म सारी बात समझते हैं पर बोलते नहीं। जानते हैं दुर्योधन अधिकारी नहीं है, समझानेका कोई फल नहीं है। भगवान् की इच्छासे ही भीष्म लड़े, अपने भक्तका महत्व दिखलाना था। पाण्डव सेनामें भी तो घटोत्कच जैसे थे, उनका भी तो विनाश करवाना था। यदि वहाँ नहीं मरता तो घटोत्कचको स्वयं भगवान् मारते। अनिच्छाकी बात तो दूसरी है, ज्ञानपूर्वक स्वेच्छासे श्रोता और वक्ताकी चेष्टा होती है, वह भावके अनुसार ही होती है। कोई दम्भ करे तो वह दाम्भिक भावपूर्ण होती है। श्रोता और वक्ताकी यदि सद्भावसे क्रिया होती है और दोनों ही पात्र होते हैं तो भक्तिमार्गमें गुण, प्रभाव, रहस्यका वर्णन एक बार ही करना पड़ता है, दुबारा नहीं। ज्ञानमार्गमें भी भगवान् के तत्वरहस्यका वर्णन एक बार ही करना पड़ता है। अधिक बार नहीं। भगवत्प्रातिके लिये तो एक बार ही काफी है। फिर तो भगवचर्चा होती है। बार-बार कहा जाता है तो वक्ता श्रोतामेंसे एककी कमी है। शास्त्रमें ऐसी बहुत-सी कथाएँ हैं-
दधीचिके पास अश्विनीकुमार आये और प्रार्थना की कि ब्रह्मका तत्त्व बतलाइये। ऋषिने उत्तर दिया अभी आप समझ नहीं सकेंगे, आप पात्र नहीं हैं, दस वर्षतक ब्रह्मचर्यका पालन करो। दस वर्ष बाद आये, ऋषि बोले अब तुम पात्र हो। दूसरी रुकावट है। इन्द्र तुम्हारे पीछे आया था और कह गया है यदि किसीको ब्रह्मका उपदेश करोगे तो तुम्हारा सिर काट डालूंगा। यदि मैं तुम्हें उपदेश करूं और इन्द्र आकर सिर काट ले तो तुम्हें दूसरेके पास जाना पड़ेगा। अश्विनीकुमारोंने दधीचि ऋषिका सिर काटकर सुरक्षित रख दिया एवं उन्हें घोड़ेका सिर लगा दिया। उपदेश देनेपर इन्द्रने ऋषिका सिर काट दिया, अश्विनीकुमारोंने ऋषिका सिर वापस लगा दिया। मैं आपको कहूँ और आपको फिर भी दूसरेके पास जाना पड़े तो मुझे धिक्कार है। यदि वक्ता और श्रोता दोनों पात्र हों तो बतानेके साथ ही समझमें आ जाना चाहिये।
उपकौशल ने ४८ वर्षतक गुरु सेवा की। अड़तालीस वर्षमें कभी भी गुरुने ब्रह्मके तत्त्व-रहस्यकी बात नहीं की। एक दिन लकड़ीमें बाल उलझ गये। उसने देखा कि बाल सफेद हो गये हैं। मनमें क्लेश हुआ। मैं अबतक पात्र न हो सका। उस दिन उसने भोजन नहीं किया। गुरुपत्नीका उससे बड़ा प्रेम था। वह बड़ी सेवा करता था। गुरुपत्नीने सिफारिश की। गुरुने कुछ उत्तर दिया नहीं और वनमें चले गये। पीछेसे अग्नियोंने उपदेश दिया।
भगवान् अर्जुनको कहते हैं निमित्तमात्र हो जा। निमित्त न भी होगा तो काम तो मुझे करना ही है। निमित्त न बने और यह विश्वास करे कि काम तो प्रभु करेंगे ही तो प्रभुको करना ही पड़ेगा, परन्तु हमको भी तो इतनी जिद्द नहीं करनी चाहिये कि निमित्त ही नहीं बनेंगे। ये गीताके सूत्र मुर्देको भी जिन्दा बनानेवाले हैं-‘निमित्तमात्र भव।' 'ऋतेपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे।'
जुझारु बाजे बजते हैं तो कायर भी जूझने लगते हैं। कहते हैं तुम्हारी विजय लौकिक, पारलौकिक, भगवत्प्राप्ति तक तुम्हारा काम बना ही पड़ा है, तुम्हारा चिन्ता करना मूर्खता है, मा शुचः। जितना हम आत्माके कल्याणके लिये शोक करते हैं उतना हम अपने पर भार लेते हैं। कितना आश्वासन है 'ऋतेपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' तू नहीं निमित्त बनेगा तो दूसरोंको निमित्त बनाकर तुम्हारी विजय करानी है। करने-करानेवाला सब मैं हूँ नाम, नाम तेरा है। देख सब मरे ही पड़े हैं। खूब उत्साहके साथ मनमें निश्चय रखना चाहिये। मरी हुई सेना अर्जुनको नहीं दीखी। हमको भी न दीखे तो कोई आश्चर्य नहीं है। अठारह दिनमें मरनेवाली सेना भगवान् ने अपने शरीरमें मरी हुई दिखला दी। हमको कोई परदेके भीतरसे जैसे अपना कल्याण दिखा दे। हमको हमारा कल्याण पहाड़के समान दीखे जैसे अर्जुनको ग्यारह अक्षौहिणी सेना जीवित दीखती है भगवान् ने मरी हुई दिखला दी, विश्वास करा दिया। साधकको काम-क्रोधकी सेना दीखती है घबड़ाता है। अरे मूर्ख! तुम्हारी शक्तिसे थोड़े ही मरेंगे। द्रोण, भीष्म, कर्ण, जयद्रथ सब वीर मरे पड़े हैं, झूठे खड़े हैं। तुम्हारे काम क्रोध तुमको दीखते हैं, किन्तु मरे पड़े हैं। तुमको मारना थोड़े ही है। निमित्त ही तो बनना है। कामादिक भीतरसे खोखले हुए पड़े हैं। तुम तुम्हारी तरफ देखते हो, भगवान् की तरफ नहीं देखते। भगवान् की भी क्या तुम्हारी-सी ही सामथ्र्य समझते हो। गीतामें तत्त्व रहस्य भरा पड़ा है-पुस्तकोंमें यह बात कैसे आ सकती है। गीता तो समुद्र है, सागर है, डुबकी लगानेसे नये-नये रत्न निकलते ही रहते हैं, कभी समाप्ति नहीं होती।
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- सत्संग की अमूल्य बातें