गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
रहस्य की बातें
भगवन्नामकी महिमा अपार है, इसका वाणीसे कोई वर्णन नहीं कर सकता। भगवच्चर्चा लिये कुछ वर्णन किया जाता है
राम भगत हितु नर तनु धारी। सहि संकट किये साधु सुखारी।।
नाम सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा।।
कहीं कहाँ लगि नाम बड़ाई। राम न सकहिं नाम गुन गाई।।
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू।।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भये मुकुत हरिनाम प्रभाऊ।।
कलिजुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि भव उतरहु पारा।।
बारि मथे घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरिभजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।
आलस्य आनेमें चार कारण मुख्य हैं -
(१) रातकी निद्रा बाकी होनी
(२) अधिक अन्न खाना, खट्टा भोजन
(३) अधिक परिश्रम करना
(४) अजीर्णादि।
वक्ता का उद्देश्य देखना चाहिये। 'ऋतेपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' 'निमित्त मात्र भव सव्यसाचिन्' इसको सुनकर अर्जुनमें उत्साह-निर्भयता हो आयी और जोरके साथ युद्धमें लग गया। भगवान् का यही उद्देश्य था। अकर्मण्यताकी तो यहाँ बात ही नहीं थी। गोपनीय तत्त्वका नाम रहस्य है गीताका पाठ हम रोज करते हैं, आज निमित्तमात्र...ऋतेपि त्वां...के भावकी बात बतलायी यह रहस्य है। पदार्थोंके छिपे हुए गुणको जानना रहस्य है। भाव, क्रिया, पदार्थ वस्तुमात्रका रहस्य होता है। घड़ी बन्द हो गयी अब कैसे चलायें क्या रहस्य है, किसीने बतला दिया कि
यहाँ चाभी लगानेकी जगह है यह रहस्य ज्ञान है। परमात्माके स्वरूपकी तात्विक व्याख्या रहस्य है। गीताकी ९वीं अध्यायमें सभी जगह रहस्य है पर फिर भी अलग-अलग समझाया जाता है।
राजविद्या - तत्त्व, ज्ञानविज्ञान तत्त्व,
राजगुह्य - रहस्य, गुह्यतम - गोपनीय रहस्य
तत्त्व राजविद्या-'मया ततमिदं सर्वम्' यहाँसे आरम्भ किया। 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' की तरह तत्त्व बतलाया। यहाँका वर्णन अधिष्ठान अध्यारोप भावको छोड़कर और सभी भावसे है। आकाशके दृष्टान्तमें आकाश आधार, बादल आधेय है। संसार बादलकी तरह, भगवान् आकाशकी तरह हैं। व्याप्य-व्यापक बादलका कोई स्थान आकाशसे खाली नहीं उनमें आकाश सर्वत्र व्याप्त है। अव्यक्तमूर्तिना-निराकार आकाशसे साकार बादल व्याप्त है। कार्य-कारण-बादलकी उत्पति हुई तेजसे, खूब गर्मीसे बादल होते हैं। अग्निकी वायुसे, वायुकी आकाशसे उत्पत्ति हुई आकाश कारण हुआ बादल कार्य है। बादल नहीं थे तब भी आकाश है। बादल नहीं रहेंगे तब भी आकाश रहेगा। तीनों भाव घट गये, लेकिन सब बातें नहीं घट सकतीं। आकाश जड है तथा परमात्मा चेतन है। आकाश शून्य है परमात्मा आनन्दघन है। आकाश अनित्य है परमात्मा नित्य है। रज्जु सर्पके रूपमें दीखता है। रज्जु अधिष्ठान है सर्पका अध्यारोप है। अधिष्ठानकी सत्ता वास्तविक होती है अध्यारोपकी नहीं। यहाँ वायु और आकाशकी एक सत्ता है। यह भक्तिका अध्याय है यहाँ सगुणका प्रकरण है। आकाश अपने-आपमें स्थित है बादल में नहीं, अगर बादल में स्थित होता तो बादलके नाशमें आकाशका नाश हो जाता। आकाश तो पहलेसे ही है। बादल आकाशके वास्तविक स्वरूपमें नहीं है। जिस कालमें बादल है उस कालका कहना है-मत्स्थानि सर्वभूतानि।
किसी समय बादल हैं किसी समय नहीं है। इसी प्रकार परमात्मामें कभी संसार है कभी नहीं। कैसे दीखते हैं-पश्य मे योगमैश्वरम्। भूतभून च भूतस्थ:-आकाशमें स्थित बादलका भरण-पोषण करनेवाला आकाश ही है। बादलकी आत्मा आकाश ही है।
मया ततमिदास- व्यापक व्याप्य
मत्स्थानि सर्वभूतानि-आधार आधेय
भूतभृन्न च भूतस्थः - कार्य कारण
रहस्यकी बातें-भगवान् कहते हैं कि समय, परिश्रम, खर्च-सब मेरे पूजनमें देवादिकोंसे कम है। क्रियाविशेषबहुलाम्-यह जाल है, समय भी अधिक लगता है। बुद्धिमान् वही है जो बराबर समय, परिश्रम लगे तो अधिक लाभवाला काम करे। मुझको छोड़कर भूतोंको क्यों भजे। रहस्य नहीं जानते मूर्ख हैं। भगवान् कहते हैं-
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्वामि प्रयतात्मनः।।
(गीता ९।२६)
जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।
बहुत सामग्री, बहुत परिश्रम, बहुत खर्चकी मेरे पूजनमें जरूरत नहीं है। मेरी प्राप्तिमें कितनी सुगमता है, और रहस्य बताते हैं-
अवजानन्ति मा मूढा मानुषी तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।
(गीता ९।११)
मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ़ लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं।
अज्ञानी मेरी अवज्ञा करते हैं, मेरा जप नहीं करते हैं, मेरा प्रभाव, मेरा स्वरूप नहीं जानते, मैं सभी भूतोंका महेश्वर हूँ, वे मुझे मनुष्य समझते हैं और तिरस्कार करते हैं। भगवान् जो यह बतलाते हैं मैं साक्षात् परमेश्वर हूँ यह बड़े रहस्यकी बात है। किसीसे सांसारिक रहस्य अपनी पूँजी पूछो तो नहीं बताना चाहता, पर पेटका दर्द दो बात पूछो तो चार बताता है। पूछा आँखमें जलन है? जवाब दिया जलन भी है दु:खती भी है। पानी आता है क्या? पानी भी आता है भारी भी है, परन्तु पूछे कि रोजगार कितना है, पूँजी कितनी है, बस चुप हो जायगा, बतलाना नहीं चाहता है। यह भीतरी बात है। किसी मित्रकी अन्तरंगको बतलाता है जिसके लिये यह सोचता है कि इसे बतलानेमें कोई हर्ज नहीं है। महात्माकी भी यही बात है जैसे धनी धनको छिपाता है वही बात महात्माकी है। धनी तो चोर डाकूके भयसे, माँगनेवालोंके भयसे अपना धन छिपाता है। महात्मा इसलिये छिपाते हैं कि उनके न बतलानेमें ही हमारा हित है। बतलानेमें हित होता तो वे अवश्य बतलाते। हमारा हित हो और न बतलायें तो कैसे महात्मा हुए। कोई महात्मा आकर डुडी पिटवायें कि मैं महात्मा हूँ तो क्या कोई विश्वास करेगा। न कहनेमें ही हित है इसीलिये नहीं कहते। इसी प्रकार भगवान् भी अपनेको छिपाते हैं। अर्जुन बहुत प्यारा है इसीलिये कहते हैं-
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दूढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
(गीता १८।६४-६५)
सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचनको तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा। हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
यही बात पहले गीता अध्याय ९ श्लोक ३४ में भी कह चुके हैं। देखनेमें जो सामान्य हो तथा वास्तव में रहस्य हो, भीतरी बात हो, सब नहीं जान सकते, गुप्त बात है, यही रहस्य है। भगवान् किस प्रकारके हैं यह बतलाना तत्त्व है। मनुष्य भगवान् को भगवान् समझ ले यह रहस्य है। गीता भक्ति, ज्ञान, योगका समुद्र है जिसने डुबकी लगायी मग्न हो गया। समुद्र कितना है समुद्र ही जानता है। डुबकी लगानेवाला पूरे समुद्रको थोड़े ही जानता है। बड़े-बड़े आचार्योंने गीताकी टीका लिखी वे भी पूरा अर्थ नहीं जानते, शायद ही कोई पाई-दो पाई जानता हो। महात्मा हो सकते हैं पर गीता पूरी नहीं जान सकते। भगवान् ही जानते हैं अर्जुन भी शायद ही पूरी जानें। महात्माकी व्याख्या तो गीतामें बतलायी है वही है। बारहवें अध्यायमें भक्तके लक्षण, चौदहवें अध्यायमें गुणातीतके लक्षण बतलाये हैं। यह बात नहीं कही कि महात्मा होगा वह गीताके श्लोकोंका पूरा अर्थ समझ लेगा। अर्जुन तात्पर्य समझ गया 'करिष्ये वचनं तत्व' ज्ञानी महात्माका यह लक्षण नहीं है कि वेदकी संस्कृति या किसी ग्रन्थके वक्ताके मन-माफिक अनुवाद कर दे। तारतम्य होता है। गीताके भाव, रहस्य, अर्थके बारेमें यह कहना कि हम पाई भी नहीं जानते युक्तिसंगत है, शास्त्रसंगत है, सत्य वचन है। गीता अथाह है। भगवान् ही जानते हैं। यदि आप लोगोंके इतनी बात भी ठहर जाय कि यह हमारेसे अच्छा जानते हैं, हमारे कल्याणके लिये इतनी ही बहुत है, इतनी कायम रह जाय तो बहुत है। इस श्लोकका अर्थ मैं ठीक जानता हूँ, झटसे कह देता है। सारे श्लोकोंके सारे अर्थमें खोजनेपर कहीं न कहीं उसकी मान्यतासे अपनी मान्यताकी अधिक मान लेगा तब यह श्रद्धा कहाँ रही कि सबसे बढ़कर जानता है। अरे तुम्हारेसे बढ़कर जानना भी तो तुम स्वीकार नहीं करते। कहाँ रही वह बात कि मेरेसे अधिक जानता है।
हमें परमात्माकी प्राप्ति न होनेके कई कारणोंमेंसे प्रधान कारण हमारी बुद्धिका अभिमान है, यह साधनमें बाधक है, शरणागतिमें कलंक है। जो शरणागत-आश्रित पुरुष किसी भी स्थलमें, किसी भी अंशमें यदि महात्मासे अपनेको अधिक जानकार मानता है तो यह उसकी शरणागतिमें कलंक ही है। महात्मामें ऐसा माननेकी गुंजाइश है इसीलिये महात्मा उसे परमात्माकी शरणमें भेजते हैं, वहाँ गुंजाइश नहीं है। हमारे लिये जैसे परमेश्वर शरण लेने योग्य हैं वैसे ही महात्मा भी शरण लेनेयोग्य हैं, शरणकी कमी ही आत्माके कल्याणके विलम्ब में हेतु है।
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- सत्संग की अमूल्य बातें