गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
|
443 पाठक हैं |
इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
महात्मा से भावनानुसार लाभ
श्रोताका काम तो जाकर सत्संगमें बैठ जाना है। वक्ताको यह समझना चाहिये कि सुननेवालोंका दोष नहीं, ये तो कमीवाले हैं ही। वक्ताको अपनी ही कमी समझनी चाहिये कि विलम्ब हो रहा है यह मेरी ही कमी है। यदि मैं लायक होता, ईश्वरके घरसे मुझे अधिकार होता तो विलम्बका क्या काम है, यदि वास्तव में ईश्वरके घरका अधिकार होता तो तुरन्त लाभ होता। श्रोताको अपनी श्रद्धा, प्रेमकी कमी समझनी चाहिये। गुण, प्रभाव, रहस्य नहीं जाना, यही तोविलम्ब होनेका कारण है। इनकी पूर्ति ईश्वर और महापुरुषोंकी कृपासे होती है। कृपा माननेसे ही लाभ होता है। श्रोता वक्ताकी दया समझे हो सकती है। परस्परमें महत्व देनेसे ही विशेष लाभ होता है। भगवान् की तो बात ही क्या है उनके दासोंके दासोंके मिलनेसे जो लाभ होता है उसको भी सँभाल नहीं सकते, किन्तु लाभ होता है भावसे। परमात्माका जो भक्त है उस भक्तके संग करनेवाले व्यक्तिके संगसे हमलोग अपने भावसे उतना ही लाभ प्राप्त कर सकते हैं। जैसे हाकिमका प्रजापर कितना प्रभाव पड़ता है, हाकिमसे दीवानका और दीवानसे राजाका ज्यादा पड़ता है; किन्तु हाकिमका प्रभाव भी प्रजापर कम नहीं पड़ता। उसी प्रकार परमात्मा और उनके भतकी बात है। जैसे हाकिमका राज्य न होनेपर भी राज्यपर उसका अधिकार है। वह हाकिम चाहे तो राजासे मिला सकता है, सिफारिश कर सकता है।
इसी प्रकार भगवान् के दासानुदासोंकी बात है, यदि कोई आर्त बार-बार प्रार्थना करे तो वह अपनी शक्तिके अनुसार चेष्टा तो करता ही है। जैसे हाकिमके प्यादेके द्वारा भी बहुत लाभ मिल सकता है वह हाकिमको, हाकिम दीवानको तथा दीवान राजातक खबर पहुँचा देता है। जब लौकिक हाकिमकी यह बात है तब परमात्माके भक्त महात्मासे तो बहुत ज्यादा लाभ मिल सकता है; क्योंकि वह तो प्रेम, आनन्द और शान्तिकी मूर्ति है, यदि हमें प्रतीत नहीं होता है तो यह हमारी बुद्धिका दोष है। उनके स्वरूप और क्रियाको देखकर बहुत ज्यादा लाभ हो सकता है। देखनेकी तो बात ही क्या है दूसरे द्वारा उनकी बात सुनकर भी बहुत लाभ होता है। उनके हाथके पत्र, उनके नाम-स्वरूपकी स्मृतिमात्रसे भी बहुत लाभ होता है। जब स्मृतिकी यह बात है तब प्रत्यक्ष देखने और नामस्मरण करनेसे तो और भी ज्यादा लाभ होता है। इसके सिवाय नाम और स्वरूपके स्मरणकी बात ही क्या है, किसीके द्वारा उसके नामके श्रवणसे भी बहुत लाभ होता है। श्रवणके बिना भी लाभ होता है। जैसे शुकदेवजीका ही नाम नहीं, शुक (तोते) पक्षीके नामसे उनकी स्मृति होकर लाभ हो जाता है, भ्रमरके दर्शनसे गोपिकाओंको भगवान् कृष्णकी स्मृति हो जाती है। भ्रमरका और भगवान् कृष्णका कोई सम्बन्ध नहीं है पर यह गोपिकाओंके प्रेमकी बात है। यह बात विशेष प्रेम और श्रद्धासे होती है। अपना कोई प्रेमास्पद भगवद्रविषयक मित्र हो और उससे कोई मिलकर आये तो उससे हम बहुत लाभ उठा सकते हैं। जैसे किसी स्त्रीको अपने विदेश रहनेवाले पतिसे मिलकर आनेवालेसे बातचीत करनेसे कितना आनन्द होता है, यह तो लौकिक प्रेमकी बात है, तब भगवद्वषयक प्रेमसे तो कितना ज्यादा आनन्द आना चाहिये। महान् पुरुषोंसे हम मिलनेके लिये जाते हैं उनमें अपनी जितनी श्रद्धा या प्रेम है, उससे उनका प्रभाव बहुत ज्यादा है। जैसे सूर्यके प्रकाशका यथार्थ अनुमान उसके सामीप्यसे ही लगता है। सूर्य लोकमें इतना प्रकाश है कि वहाँ जाकर आनेवालेके लिये यहाँ घोर अन्धकार प्रतीत होता है, इसी प्रकार महापुरुषोंके प्रभावका थाह ही नहीं है, क्योंकि वह प्रेम, शान्ति और आनन्दका पुंज हैं जो व्यक्ति उसके जितना समीप पहुँचेगा, उतना ही अधिक आनन्दप्रेम उसे प्राप्त होगा। जैसे सूर्यके जितना समीप जायेगा उतना ही अधिक प्रकाश प्रतीत होगा। महापुरुषोंका प्रभाव न जाननेमें यह हेतु है कि हमारे हृदयके नेत्र बंद हैं। महापुरुष कलकत्तेमें है और हम यहाँ हैं। यहाँसे कलकत्तेके लिये चलने लग गये, यद्यपि वे दीखते तो नहीं हैं, किन्तु शान्ति, आनन्द चलनेके साथ ही प्रतीत होने लगे। कोई भाई यहाँ आकर चला गया। उसके पास कस्तूरी थी इसलिये हमलोगोंको सुगंध आयी। महात्मा पुरुष जिस स्थानपर आकर चले जाते हैं वहाँ अपने उत्तम परमाणु छोड़ जाते हैं। वह स्थान हमारे लिये लाभप्रद हो जाता है। वहाँ बैठकर भजन-ध्यान करनेसे विशेष लाभ प्रतीत होता है। आज यहाँ कीर्तन भवनमें हमलोग जो बातें कर रहें हैं दो महीना बाद यहाँ आकर बैठकर बातें करें तो यहाँ आजकी बातोंके परमाणु हमें प्रत्यक्ष सहायता देंगे।
किसी स्थानमें किसीके लिये श्रीभगवान् का प्रादुर्भाव हो जाय तो श्रद्धावालेका तो उस स्थानसे ही कल्याण हो जाता है यानि वह स्थान मुक्तिदायक हो जाता है, किन्तु बिना श्रद्धावालेके भी उस जगह भजन ध्यान करनेसे विशेष लाभ होता है। जैसे वीर विक्रमादित्यके सिंहासनसे विशेष लाभ होता है। वीर विक्रमादित्यका सिंहासन जिस टीलेमें गड़ा हुआ था उस टीलेपर बैठकर न्याय करनेसे जो बात होती वह दूसरी जगह नहीं होती। टीला खोदकर देखनेसे वहाँ विक्रमादित्यका सिंहासन निकला। महापुरुषोंके लिये इसीलिये कहा है-
कुलं पवित्र जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन् लीनं परं ब्रह्मणि यस्य चेतः।।
जिसका चित्त अपार ब्रह्मानन्दस्वरूप सुखसागरस्वरूप इस परब्रह्ममें लीन है उसके द्वारा कुल पवित्र कर दिया गया, उसकी माँ भी कृतकृत्य हो गयी और धरित्री भी पुण्यमयी हुई।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि। तीर्थोंमें तीर्थत्व महापुरुषोंके द्वारा आता है। जब प्लेगके परमाणु भी हमें नहीं दीखते तब उनके परमाणु तो और भी सूक्ष्म होते हैं।
आपलोगोंकी मोती (एक चपरासी) और भगतरामजीकी (एक कर्मचारी) आज्ञा पालन करनेके लिये कहा जाय तो क्या आप मानेंगे ? श्रीभरतजी तो अपनी श्रद्धासे भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी पादुकाओंको ही सिंहासनपर विराजमान करके भगवान् की भाँति ही उनसे आज्ञा माँगकर राज्यका शासन करते। आपको यदि कह दें कि आप इनसे पूछकर साधन करें तो आपके यह बात समझमें ही नहीं आयेगी। पर्वतोंपर अनेक तरहकी सोमलता घास उगती है। कीमत जाननेवाला अलग-अलग वनस्पतियोंकी पहचानता है हमलोग नहीं जानते तो हमारे लिये घास ही है। विश्वास होनेके बाद तो महात्मा कह दें कि यह खूटा परमात्मा है तो बस उसका काम हो गया। कोई महात्मा ही उसकी सेवा में आनन्द आना तो मोटी बात है। उनके बताये हुए कामको करनेमें बड़ी प्रसन्नता होती है, उससे फूला-फूला फिरता है, बतानेकी बात तो अलग रही। मालूम हो जाय कि प्रसन्नता होती है। उदाहरण-साहबकी प्रसन्नता प्राप्त करनी है, साहब तो कुछ नहीं कहता, दूसरोंसे पता लगाकर साहबके मनके अनुकूल काम करता है। साहब प्रसन्न हो जाता है। अपना दलाल बना लेता है साहब स्वयं हुकुम दे दे कि तुम यह काम करो तब तो इतना प्रसन्न होता है कि
मानो भगवान् ने ही हुकुम दे दिया। सांसारिक हाकिमोंकी प्रसन्नतासे रुपया मिलता है। सारी त्रिलोकीके सामने लाख रुपयोंकी कीमत क्या है। " असंख्य कोटि ब्रह्माण्डके सामने उन लाख रुपयोंकी क्या कीमत रहेगी। उस परमात्माकी प्राप्तिवाले पुरुषके इशारेके अनुसार चलनेसे कितना महान् लाभ हो सकता है। यदि यह विश्वास हो कि भगवान् हैं और मिल सकते हैं तो उस महात्माकी प्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये क्या नहीं किया जा सकता। जीवित स्त्रीके स्पर्शसे कामदीपन होता है, वही मर जाती है फिर कुछ नहीं होता। स्त्री तो मौजूद है पर उससे सुख मिलनेकी आशा नहीं रही। स्वप्नकी स्त्रीके संगसे वीर्य पतन हो जाता है। वहाँ स्त्री कहाँ भावना ही तो है। इसी प्रकार महात्मामें जैसी भावना होगी वैसा ही असर होगा। स्त्रीकी लड़का आकर छूता है उसके मनमें वात्सल्य भाव होता है। कामी पुरुष छूता है उसके कामदीपनका असर आता है। भावका ही सम्बन्ध है। इसी प्रकार भावसे महात्मामें ऐसी ही बात है। स्पर्शकी, चिन्तनकी तथा दर्शनकी बात कही। दर्शनकी बात स्त्रीमें भी घटा सकते हैं। कामी पुरुषके शरीरमें स्त्रीके दर्शनसे काम दौड़ जायगा, नेत्र जम जायेंगे, मानो नेत्र आस्वादन ले रहे हैं। उसी प्रकार महात्मामें प्रेमकी बात है। वहाँ प्रेमदीपन होता है। प्रेमसे देखना दूसरे प्रकारका ही है श्रद्धासे देखना भी दूसरे प्रकारका ही है। श्रद्धा और प्रेमका असली पता तो तब लगे जब भगवान् और भगवान् के भक्तोंका आपसमें मिलन देखे। रामायणमें भरत रामका मिलन पढ़ा ही है। देखनेवालोंके आनन्दका क्या ठिकाना। एक भाईको भगवान् के दर्शन हो जायँ तब भी भगवान् किस प्रकारके नेत्रोंसे देखते हैं यह बात नकल करके वह नहीं दिखा सकता, स्वांग बना भी ले तो वह असली बात कहाँसे आवे, प्रेम होनेसे वैसा अपने आप हो जाता है। महापुरुषोंके प्रभावके विषयमें जितनी धारणा की जाय उससे भी बहुत ज्यादा है। दर्शन भाषणसे कल्याण हो जाता है। बहुत लोग लाभ उठायें इससे उनके घाटा नहीं पड़ता। दो मकोड़े अनजानमें दबकर मर गये, भावुककी भावनासे दीखेगा कि मुक्त हो गये, उस भावुकको तो बड़ी प्रसन्नता होगी। श्रद्धा-विश्वासकी बहुत बड़ी बात है। श्रद्धालु पुरुषकी स्वाभाविक क्रियासे उसकी श्रद्धाका पता लग जायगा। क्रिया करनेवाला कर्ता खुद बहुत-सी बात नहीं जानता है। स्वाभाविक ही श्रद्धाकी क्रिया हो रही है। उदाहरण-एक पूज्य हैं उनके हम पैर लगा सकते नहीं, यह स्वभावसिद्ध बात है। दो आदमी चल रहे हैं। एक श्रद्धालु साथ चल रहा है। पूज्यके शरीरकी छायामें श्रद्धालुके पैर नहीं टिक सकते। हवा चल रही है। अपनी हवा छूकर उन्हें स्पर्श करे ऐसे रास्ते वह नहीं बैठता। महात्माकी छुई हुई हवा महात्माके परमाणु ला रही है। उस हवाके स्पर्शसे उसे बड़ा आनन्द होता है। कस्तूरीकी डिब्बीको छूकर गन्ध लेनेसे गन्धविषयक प्रसन्नता हुई। इसी प्रकार महात्माको स्पर्श की हुई हवामें शान्ति, आनन्द, प्रसन्नताका स्पर्श है।
किसी समय मौकेकी ऐसी बात हो जाय तो उसी क्षण भगवान् प्रकट हो जायें। भगवान् को प्रकट होनेमें कोई समय थोड़े ही लगता है। प्रेमभावका जो प्रादुर्भाव हो रहा है, दूसरे विषयकी बात होनेसे उसमें व्यवधान आ जाता है। प्रेमका यह भाव जाग्रत् रहे, इसे हमलोग भूलें नहीं, यह चेष्टा करता रहे। प्रेममें नीति और विचार भूल जाते हैं, जनकादि भी भूल गये, हम लोग तो साधारण हैं। जनकजीका जनकपुरमें राम-लक्ष्मणसे मिलनेके समय, राम-भरतके मिलनके समय, हनुमान् जीद्वारा सीताका सन्देश, भरत-रामका मिलन यह सब प्रेमके प्रसिद्ध प्रसङ्ग हैं। सुदामा-मिलनके प्रसङ्गमें आँसू रोकनेपर भी नहीं रुकते। इस समय यहाँका वातावरण बहुत उन्नतिपर है, यह बात ध्यानमें रखें।
|
- सत्संग की अमूल्य बातें