जज साहब ने कमरे का दरवाजा बन्द कर सुधीर को मेज पर झुकाकर कहा था, "मुझे
मारपीट से नफरत है पर मैं तुम्हें बतला देना चाहता हूं कि इस घर में सिर्फ
शरीफ आदमी रह सकते हैं। फिर कभी तुम्हारी हिम्मत किसी लड़की पर हाथ उठाने
की नहीं पड़नी चाहिए।"
कहकर उन्होंने बेंत की पतली छड़ी से उसकी पीठ पर पांच वार किये थे और कहा
था, "जाओ, पर भूलना मत ।"
सुधीर नहीं भूला था। अगर शुक्ला साहब गुस्से में पागल होकर चीखते-चिल्लाते
और आपे से बाहर होकर उसे मारते तो सुधीर उन्हें कुछ देर बाद माफ कर देता।
तब गलत काम करता पकड़ा गया वह, और गलत की सजा देते जज साहब एक जमीन पर
खड़े होते । पर यह? काष्ठ-सा तना चेहरा, यान्त्रिक अनुशासन से दबंग आवाज
और प्रहार करते उदासीन हाथ, इन्हें वह क्रूर सियासत की निशानी मान बरसों
माफ नहीं कर सका इसीलिए पिटते हुए वह रोया-चिल्लाया नहीं, बस जाते-जाते एक
तीखी नफरत-भरी नजर जज साहब पर डाली, जो अर्से तक उन्हें सालती रही।
जहां तक जज साहब का सवाल था, मारना-पीटना सचमुच उनकी प्रकृति के विरुद्ध
था । उन्होंने वही किया था, जो उनकी जगह कोई भी सुशिक्षित उच्च पदस्थ
अंग्रेज अफसर करता । शुक्ला साहब अंग्रेजी अनुशासन के गहरे कायल थे ।
उन्नीस-सौ-बयालीस का जमाना था। स्वराज्य की बू जोरों से फैली थी और
अंग्रेजों के जाते ही शालीनता नष्ट हो जाने का डर, अकेले उनके मन में
नहीं, सभी ऊंचे अफसरों के दिल में समाया हुआ था। स्वराज्य को वे गलत नहीं
समझते थे। पर अपने जीवन-मूल्यों के नष्ट होने के डर से वे बौखलाये हुए
जरूर थे; इतने कि और दिनों से ज्यादा लगन के साथ उन पर अमल कर रहे थे।
लिहाजा सुधीर को दण्ड देने में उन्होंने निजी भावनाओं का दखल नहीं होने
दिया।
रेवा के जन्म के चार वर्ष बाद रेवा और सुधीर की मां की मृत्यु हो जाने से
उनके लालन-पालन की जिम्मेदारी उन्हीं पर आ पड़ी है। रेवा को लेकर उन्हें
विशेष चिन्ता का सामना नहीं करना पड़ा पर सुधीर के लिए वे अत्यन्त व्याकुल
हो उठते हैं। आज उस पर हाथ उठाने के बाद उन्हें लगा, वह निरंकुश हो गलत
रास्ते पर जा पड़ा है। देर तक चहल कदमी करते सोचते रहे कि सुधीर को
सही-सीधे रास्ते पर चलाने के लिए क्या-क्या कदम उन्हें खुद उठाने पड़ें
कुछ देर बाद रेवा आई और दृढ़ता से बोली, “डैडी, सुधीर ने हमें नहीं मारा।"
आह्लादित शुक्ला साहब ने उसे उठाकर गोदी में बिठला लिया और गद्गद स्वर में
बोले, "दैट्स ए गुड गर्ल !"
कितनी भोली और प्यारी लड़की है, मार खाकर भी सुधीर को बचाने आई है। इसे
कहते हैं शख्सियत । काश, सुधीर भी यह गुण सीख सके ! आखिर उनका वंश चलना तो
सुधीर से है, रेवा से नहीं। पुत्र को जीवन में कुछ बनना होता है, जबकि
पूत्री को पराये घर का धन समझ कर, पाल-पोसकर सुपात्र के हवाले कर देना
होता है।
अगले दिन सुधीर छमाही इम्तहान की रिपोर्ट लेकर घर पहुंचा तो शुक्ला साहब
को एक धक्का और लगा । गणित में नम्बर कुल सौ में चवालीस । अब तक वे उसे
काफी मेधावी समझते आये थे। किसी भी चीज को अपवाद समझकर छोड़ देने की आदत
उन्होंने अपने पेशे में सीखी न थी। एक बार फिर सुधीर के पालन-पोषण में
असफल होने का डर उन्हें कचोट गया। उससे मुक्ति पाने के लिए वे हाथ-पैर
मारने लगे। तभी एक दिन उनके दोस्त झा साहब कानपुर शहर के सबसे खुर्राट
मास्टर श्रीवास्तव की खबर उन्हें दे गए। उन्होंने इसी तिनके को सहारा मान
लिया।
झा साहब डिस्ट्रिक्ट में हेल्थ-आफिसर का ऊंचा ओहदा संभाले हुए थे और
मास्टर श्रीवास्तव उनके मातहत लोअर डिवीजन क्लर्क थे। आंकड़े लिखते और
उनका जोड़-गुणा करते उन्हें गणित का खासा ज्ञान हो गया
था। उसका इस्तेमाल वह शाम को लड़कों को गणित पढ़ाकर करते थे। झा साहब का
कहना था । वह तहजीब-तमीज वाला काम में मुस्तैद बाबू है, जिसने आंकड़ों के
जोड़ में आज तक गलती नहीं की। फिर झा साहब के मातहत काम करने की वजह से
उसमें डिसिप्लिन से वह लगाव भी था जिसके अमल में झा साहब किसी अंग्रेज
अफसर से कम नहीं थे। शुक्ला साहब ने जो थोड़ी-बहुत कसर देखी, समझा-बुझाकर
दूर कर दी।
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