उन्हें फूलों से बेहद लगाव था। हर तरह का फूल उनके बगीचे में मिल सकता था।
पर एक फूल भी किसी को तोड़ने की इजाजत नहीं थी। रोज वे बाग के किसी-न-किसी
कोने का मुआयना करने निकला करते थे पर जान-बूझकर इस तरफ नहीं आते थे। बिना
फूली बेल देख मन को कचोट न लगे। आज वहां पहुंचे तो नाजुक बेल पर पीले
फूलों का लदान देखते खड़े रह गए।
"फूल कुछ ज्यादा नहीं खिल आये ? बेल को तकलीफ हो रही होगी," माली से कह
वापस खिड़की की तरफ मुड़े ही थे कि भीतर का दृश्य देख, जिन्दगी में पहली
बार फूलों को भूल, हक्के-बक्के खड़े रह गए।
देखा, सुधीर मुर्गा बना खड़ा है और श्रीवास्तव नीम की पतली छड़ी धाड़-धाड़
उसकी झुकी पीठ पर पटक रहा है। साथ ही जहरीले. नाग की तरह फुफकारकर चीख रहा
है, "अब बोल बच्चू ! साला समझता क्या है ! उल्लू के पट्टे ! बुला अपने
बाप-दादा को। हड्डी-पसली एक न कर दी तो मेरा नाम नहीं।"
लग रहा था वह देर से कसरत कर रहा है क्योंकि उसके पीले धंसे गाल सेब की
तरह लाल हो उठे थे। फीकी, कीच जमी मिच-मिचाती आंखें पिशाची चमक से जल रही
थीं। सुधीर की आवाज उनके कानों में नहीं पड़ी। क्षण भर के लिए संतुलन खो,
वे चीख उठे, "श्रीवास्तव !"
श्रीवास्तव ने वार करने के लिए हाथ ऊपर उठाया था कि जज साहब की पुकार
चाबुक की तरह पड़ी। हाथ उठा रहा। लकवे के मरीज की तरह वह अपनी जगह पथराया
खड़ा रह गया, इतनी ताब न हुई कि खिड़की की तरफ घूम सके । शुक्ला साहब
बरामदा पार करके कमरे में दाखिल हो गए। श्रीवास्तव के हाथ से छड़ी नीचे
गिर गई। पूरे बदन में इस कदर कंपकंपी छूटी कि कांपते हाथ नमस्कार में नहीं
जोड़ सका। शुक्ला साहब तब तक अपने पर सन्तुलन पा चुके थे।
"क्या हो रहा था ?" उन्होंने उस ठण्डे पथरीले स्वर में पूछा जो अदालत में
अभियुक्त से सवाल करते वक्त इस्तेमाल करते थे। .
"उससे कहिए, बाहर जाए।" मार के सहसा रुक जाने से हक्का-बक्का सुधीर अब तक
मुर्गा बना खड़ा था। अब डैडी का स्वर सुन सीधा हो गया। उनकी आवाज के
ठण्डेपन से वह जान गया वे नाराज हैं, पर किससे, उससे या मास्टर से, समझ
नहीं पाया। सहसा श्रीवास्तव उसके पास जाकर बोला, "जाओ, बेटा, जाओ.."तुम
बाहर जाओ।" लगा-" उसका स्वर शहद की बोतल में जा गिरा है। वह समझ गया, डैडी
का गुस्सा उस पर नहीं, मास्टर पर है। वह चुपचाप बाहर निकल आया और खिड़की
के पास से भीतर देखने लगा। वह जानता था, आमतौर पर डैडी
को छिपकर बात सुनना बेहद नापसन्द है, पर न जाने क्यों लगा, आज वे उसे
डांटने-फटकारने वाले नहीं हैं। क्या पता, अभी पास बुलाकर प्यार ही कर
बैठे।
"जानना चाहता हूं आप इसे किस गलती किं सजा दे रहे थे ?"भीतर शुक्ला साहब
ने पूछा।
मास्टर श्रीवास्तव सकपका गये । गलती हो तो कहें। डेसीमल के गुणा में लड़का
गड़बड़ा गया था, कहने से वे सन्तुष्ट होते नहीं दिखलाई देते थे। सच बात यह
थी भी नहीं, सुबह से उसका अपना दिमाग भन्नाया हुआ था । आज दफ्तर में
कलेक्टर साहब दौरा करने आये थे। जब वे उसके कमरे से गुजर रहे थे, तो न
जाने कैसे, उसके मुंह से डकार निकल गई थी। वह ध्यान से कलेक्टर साहब के
चमचमाते जूते देख रहा था कि आप से-आप निकल गई। कलेक्टर साहब उसके करीब से
गुजर रहे थे और उन्होंने वह सुनी, आव देखा न ताव, सबके सामने चमचमाता जूता
उठाकर पीठ पर दो लात जमाई और चीखे "यू सैवेज ब्लैक डाग; हाउ डेयर यू डू
दैट बिफोर मी? गेट आउट !"
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