शुक्ला साहब ने आंखें ऊपर उठाकर उसकी तरफ नहीं देखा। उन्हें शर्म महसस हो
रही थी। किसी के सामने मार खाने पर दुबारा उसके सामने जाने पर आदमी जिस
लज्जा का अनुभव करता है. वही शुक्ला साहब इस वक्त सुधीर के सामने कर रहे
थे। सुधीर की जगह वे होते तो फौरन वहां से हट जाना चाहते । सुधीर भी चाहता
होगा, सोच लेना उनके लिए बहुत आसान था।
"मैंने तुम्हारे मास्टर बदल दिए। अब से तुम हमारे बराबर वाले कमरे में
पढ़ा करोगे," उन्होंने कोमल स्वर में कहा और फिर कुछ सख्ती से जोड़ा,
"ध्यान से पढ़ना।"
"जी," सुधीर ने कहा और कुछ और सुनने की आशा में खड़ा रहा।
"ठीक है, जाओ खेलो," उन्होंने कहा और खुद वहां से बाहर निकल गए।
बस ! लुटा-सा सुधीर उन्हें देखता रहा । न दुलारं, न अफसोस, जैसे कुछ हुआ
ही न हो।
शुक्ला साहब की न्याय-बुद्धि कहती थी कि न केवल गुरु का शिष्य के सामने
अपमान नहीं करना चाहिए बल्कि उसे पता भी नहीं लगने देना चाहिए कि उसके
पीछे किया गया है। श्रीवास्तव जैसे मास्टर से लड़के को पढ़वाना असम्भव है,
इसी से उसे हटा ही नहीं दिया था, किसी बच्चे को पढ़ाने से मनाही भी कर दी
थी। पर इसका मतलब यह नहीं था कि वे सुधीर से उसकी बुराई करने बैठ जाते।
सुधीर ने मास्टर श्रीवास्तव को माफ कर दिया। यही नहीं, वयस्क होने तक उनसे
सहानुभूति हो आई। बचपन की यह घटना उसे ज्यों-की त्यों पूरी याद रह गई थी।
वह जब चाहता, उसका कोई दृश्य अपनी आंखों के सामने ताजा कर लेता।
धीरे-धीरे, जैसे-जैसे उसके अनुभव बढ़ते गए उसे मास्टरका घिघियाता और जज
साहब का उदासीन अभिजात रूप बार-बार याद आने लगा। जज साहब के झिड़कने पर जो
रूप उसने मास्टर का देखा था, उन्हें दयनीय बना गया। उसकी समझ में आ गया कि
मास्टर श्रीवास्तव उसी की तरह निरीह और दुर्बल व्यक्तित्व का आदमी था, जो
बली से पिटकर निर्बल को पीटता फिरता था। वह उस व्यवस्था का शिकार था जिसके
अधिकारी जज साहब थे या उनके तबके के लोग । एक जज के नाते, सुधीर ने उन्हें
कभी माफ नहीं किया। अगर साधारण पिता की तरह उन्होंने उसे दुलारा-पूचकारा
होता, उस पर पड़ी मार पर क्षोभ प्रकट किया होता तो वह उन्हें कटघरे में
खड़ा नहीं करता । माफ करने के अधिकार को त्याग देता। तब वे डैडी होते, जज
साहब नहीं।
सुधीर को कमरे के अन्दर छोड़ शुक्ला साहब बाहर निकल आए और दुबारा पीली
चमेली की बेल के पास जा खड़े हुए। उस वहशत पैदा करने वाले हादसे ने उनके
दिलो-दिमाग को झिंझोड़कर रख दिया था। देर तक चमेली की ताजा खुशबू सूंघकर
भी उन्हें राहत नहीं मिली, बल्कि उस पर लदे फूलों के धकापेल गुच्छों को
देख वही वहशी एहसास बार-बार होने लगा।
"देखो," उन्होंने माली को आवाज लगाकर कहा, "इन फूलों का भार ज्यादा हो गया
है, इनमें से कुछ छांट दो।"
"छांट दूं?"
"हां, करीब चौथाई छांट दो।"
"उन फूलों को बैठक में लगा दूं?"
"नहीं-नहीं," कहकर शुक्ला साहब दो कदम पीछे हट गए। फूलों को तोड़कर
गुलदस्ते में सजाना उनके लिए उतना ही वहशी था, जितना इन्सानों के सिर काट
गले में लटका लेना।
"कलेक्टर साहब के यहां दे आना," उन्होंने कहा, "और देखो, जब हम टेनिस
खेलने क्लब जाएं तब काटना।"
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