नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
राजन ने प्रथम दरश में ही,
मेरी कन्या की इच्छा की,
शायद विवाह-मंशा उससे,
राजन को शान्ति नहीं देती॥78॥
यदि आप पूछ लें राजन् से,
क्या उनकी चिन्ता इसी वजह?
तब तो आगे बातें होंगी-
नृप से, विवाह के बारे में॥79॥
यह सुनकर लौटा राजकुंवर,
सीधा वह गया पिता के ढिंग,
पूछा संकोच त्याग करके,
है पिता साफ बतलाएँ अब॥80॥
क्या हुई आपकी इच्छा है?-
करने की परिणय, उस धी से,
यदि हाँ में है जवाब भव का,
तो मैं प्रयास रत होऊँगा॥81॥
बोले राजन हे तनय! सुनो,
यद्यपि विवाह-इच्छा मेरी,
पर एक पुत्र के रहते फिर-
कैसे होगा दूसरा व्याह? 82॥
दूजा विवाह क्यों करूँ वत्स,
इच्छा न कोई सन्तान हेतु,
शायद वह क्षणिक वासना थी,
जो अब तक बांधे है मुझको॥83॥
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- अनुक्रम