नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
'हे कुँवर! आपको धन्यवाद!
यह कठिन प्रतिज्ञा कर के प्रभु,
हैं पाठ पढ़ाए जगती को,
किसको कहते हैं पितृ भक्ति॥108॥
यदि सारा जगत करें ऐसी ही-
भक्ति, पिता और माता की,
यह मही स्वर्ग बन जाएगी,
पाकर ऐसे सुत का स्पर्श॥109॥
अब नहीं मुझे संशय कोई,
देने में अपनी कन्या को,
करके विवाह राजन् अपना,
दांपत्य लाभ फिर शुरू करें॥110॥
है भाग्यवती कन्या मेरी,
जो कौरव कुल की वधू बनी,
भाग्य उदय है हुआ आज,
भगवान करें उसका मंगल॥111॥
खुश हुए कुँवर उस नाविक पर,
बोले, धन्यवाद हे आर्य! तुम्हें,
अब विदा करें मेरी माँ को,
पहुँचाऊँ उनको राजमहल॥112॥
है उचित नहीं उनका रहना,
निज पिता भवन में अधिक समय,
मैं रथ बुलवाता हूँ अपना,
माता उसमें हों शुभारूढ़॥113॥
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- अनुक्रम