नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
जब आई सत्यवती बाहर-
घर से, निज पिता बुलाने पर,
बोले कुमार, हे मातु! चलें-
घर को अपने, अब राजमहल॥114॥
पितु से आज्ञा ले सत्यवती,
आरूढ़ हुई सुन्दर रथ पर,
रथ चला वहाँ से पवन वेग,
जा पहुँचा राजमहल-सम्मुख॥115॥
दे कर सहायता हाथों की,
भीष्म उतारे माता को,
बोले, चलिए भीतर माता,
है पिता कक्ष में शयन युक्त॥116॥
ले कर माता को आगे-आगे,
पहुँचे थे भीष्म तात सम्मुख,
बोले स्वीकार करें जनिता,
माता आई हैं राजमहल॥117॥
देखा शान्तनु ने सत्यवती-
को, पूछा सुत से है यह कौन?
बतलाया भीष्म नमा सिर को,
यह धीवर कन्या-सत्यवती॥118॥
जिसके वियोग में जूझ रहे-
थे आप, सुखा कर निज शरीर,
माता के रूप खड़ी है यह,
स्वीकार करें हे पिता श्रेष्ठ॥119॥
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- अनुक्रम