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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


नोरा पर अपने प्रवास की मैंने अन्तिम कविता लिखी। कुछ पंक्तियाँ आप सुनना चाहेंगे?

सबसे कोमल
आयर-मधुवन की कलिका का
सबसे निर्मल
आयर-सागर के मोती का
सबसे उज्ज्वल
आयर-अंबर के तारे का
तुम नाम अगर मुझसे पूछो,
भर आह कहूँगा मैं नोरा।

वह पोर्ट सईद में उतर गयी।
उसके बाद हमें उसका कोई समाचार न मिला।
वह हमारा पता ले गयी थी।

मुझे पता नहीं कि बावा ने कभी उसके बारे में फिर सोचा या नहीं पर मैंने सोचा।

नोरा कहाँ होगी, कैसी होगी?

और मेरा मन भीतर से बोला है, नोरा कहीं होगी, सुखी नहीं होगी।

इतनी अन्धकारमयी, गन्दभरी और कठोर दुनिया नोरा जैसी कोमलता, निर्मलता, उज्ज्वलता को सह सकी होगी!

उसकी तो सत्ता ही प्रतिक्षण दुनिया को उसकी हीनता का बोध कराती होगी।

नोरा को अपने धरातल पर उतार लाने को दुनिया ने क्या किया होगा!

दुनिया की खींच, घसीट, बलात्कार ने नोरा की सहज, स्वाभाविक, सुकुमार प्रसन्नता को मिटा दिया होगा।

वह निश्चय दुखी होगी।

सुखी होती तो हमें ज़रूर लिखती।

ऐसे अपने मन का उल्लास ही बाँटते हैं, अपने मन का अवसाद-भार अकेले ढोते अनजाने, अनसुने रास्तों पर चले जाते हैं- 'दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।'

पोर्ट सईद की याद आते ही आँखों के सामने आ जाते हैं, उसके अरबी व्यापारी, जो लम्बी-लम्बी खुली नावों में मिस्र की कला-कारीगरी का रंगारंग सामान प्रदर्शित करते हुए जहाज़ को घेर लेते हैं। बिना जहाज़ पर आये वे डेक पर खड़े मुसाफिरों से-ऊँचे-से-ऊँचे डेक पर खड़े-कितनी खरीद-फरोख्त कर लेते हैं! वे लम्बी-लम्बी रस्सियाँ जहाज़ के सबसे ऊँचे डेक तक फेंकने में माहिर होते हैं। मुसाफिर उन्हें पकड़ लेते हैं और उन्हीं के सहारे वे बड़े-से-बड़ा सामान ऊपर पहुँचा देते हैं और मुसाफिर उनका दाम नीचे। बड़ी मोलतोल-सौदेबाज़ी होती है, नये मुसाफिर ठगे जाते होंगे, दाम वे चौगुना-पँचगुना माँगते हैं, यात्री कितना कम करने को कहेगा! कितनी भाषाएँ वे जानते हैं, मुसाफिर को देखते ही वे उसकी भाषा बोलने लगते हैं। मुझे क्या लेना था, मुझे तो किसी व्यापारी ने सम्बोधित भी न किया। तजुर्बेकार अरबी व्यापारी सूरत देखते ही अन्दाज़ा लगा लेते हैं कि यह खरीदने वाला आसामी है या नहीं।

दुनिया का हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुज़रा हूँ, खरीदार नहीं हूँ।

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