जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
स्वेज़ नहर में जहाज़ बहुत धीमे चलता है, कहीं-कहीं नहर इतनी सँकरी है कि डेक पर से किनारे खड़े आदमियों से बातचीत हो सकती है-होती भी है। बात करने वाले होते हैं-नहर के रक्षक, किनारे की छावनियों में पड़े फौजी सिपाही। लम्बी-लम्बी अवधि तक नारी सम्पर्क से वंचित ये सिपाही डेक पर खड़ी स्त्रियों को कितनी प्यासी नज़रों से देखते हैं! कोई-कोई प्यार भरे शब्दों से उन्हें सम्बोधित भी करते हैं, 'फ्लाइंग-किस' भेजते हैं। विनोद में योरोपियन स्त्रियाँ 'फ्लाइंग-किस' से प्रत्युत्तर भी देती हैं, क्या जाता है उनका, सिपाही क्षण-भर के लिए खुश हो जाता है।
लाल सागर में प्रवेश करते ही मौसम बदल गया-गरमी पड़ने लगी। हम अपना तकिया-चद्दर लेकर खुले डेक पर आ जाते और वहीं सोते। खुले आसमान के नीचे सोने का सुख जब से भारत छोड़ा था, सपना हो गया था। चाँद-तारे हमारी कितनी प्रतीक्षा में थे। कभी हम जहाज़ के पिछले हिस्से पर जाकर खड़े होते तो जहाज़ चलने से समुद्र पर बनती, पीछे छूटती, सफेद फेन की लम्बी लीक दूर तक दिखाई देती, जैसे कोई लम्बा जहाज़ अज़दहा, जहाज़ को पकड़ने को चला जा रहा हो, पर पकड़ न पाता हो।
जहाज़ अदन पहुँचा कि किसी जहाज़ी कर्मचारी ने सूचित किया कि You will be received on behalf of the Government of India. यानी बन्दरगाह पर भारत सरकार की ओर से आपका स्वागत किया जायेगा। सोचने लगा, मैं कौन ऐसी मुहिम मारकर आया हूँ कि भारत सरकार मेरे स्वागत को तुतुआ उठी है। अदन में भारत सरकार का कांसुलावास है यानी Consulate! कांसुल महोदय अपनी किश्ती लेकर सीढ़ियों के पास मौजूद थे, हो गया न स्वागत ! वे मुझे किश्ती में बिठाकर बन्दर पर ले गये और उनकी वजह से बिना किसी पूछ-पछोर के मुझे बाहर जाने दिया गया। वहाँ उनकी कार खड़ी थी, अपने निवास पर ले गये, चटपटी मसालेदार आलू की तरकारी और पूरी का नाश्ता कराया। रोम-रोम उनके प्रति कृतज्ञ हो उठा। चलने लगा तो बोले, 'एक पेटी है, क्रोकरी की, उसे अगर तकलीफ न हो तो अपने सामान के साथ रखवा लीजिये, इलाहाबाद में फलां सज्जन को आप पहुँचा दीजियेगा या उनको कहला दीजियेगा, वे आकर आपके यहाँ से ले जायेंगे।' पूरी-तरकारी का स्वाद अभी जीभ पर से न गया था, तकलीफ कैसे होती! पेटी रखवानी ही थी साथ। स्वागत का रहस्य खुल गया। अदन में विदेशी क्रोकरी सस्ती मिलती है, फ्री पोर्ट है, यानी चुंगी-फुगी वहाँ नहीं लगती। कांसुल साहब अपने किसी सम्बन्धी को निहाल करना चाहते थे। यात्री-सूची से उनको मेरा पता लग गया होगा। और भारत सरकार की आड़ से उन्होंने अपना उल्लू साध लिया। उस पेटी को लेकर बम्बई में मुझे कितनी जहमत उठानी पड़ी।
लौटते समय अदन के बाज़ार से गुज़रा तो लगा जैसे हिन्दुस्तान के ही किसी बाज़ार से गुजर रहा हूँ। कितने हिन्दुस्तानियों ने वहाँ अपनी दुकानें बैठा ली हैं। जहाँ सस्ते लाभ की गुंजाइश हो, वहाँ की ओर हिन्दुस्तानी व्यापारी बड़ी जल्दी लपकता है। दुनिया के किसी फ्री पोर्ट की मैं कल्पना नहीं कर सकता, जहाँ हिन्दुस्तानी व्यापारी न पहुँच गये हों। फिर ब्रिटिश भारत की प्रजा होने के नाते जहाँ-जहाँ ब्रिटेन की हुकूमत हो, वहाँ जाने-बसने का उन्हें कानूनी अधिकार था। सोचता हूँ, ब्रिटिश सत्ता की अधीनता का सबसे अधिक लाभ हिन्दुस्तान के बनियों ने उठाया था। इसी से तो शायद एक बनिये ने उस पाप का प्रायश्चित्त भी कर दिया।
जून समाप्त होने को था और अरब सागर में मानसूनी हवाएँ ज़ोरों से चल रही र्थी। जहाज़ खूब हिचकोले खाता, और हमें समुद्री मतली का भी शिकार होना पडा। सारा जहाज़ ही समद्री मतली से पीडित था और मैंने ऐसा सना कि कई वक्त खाने के हॉल में कोई गया ही नहीं और बम्बई थी कि जैसे-जैसे नज़दीक आती जाती थी, वैसे-वैसे वह और दूर लगती थी।
आखिरकार दो जुलाई की शाम को हमें सूचित किया गया कि तीन को सवेरे हमारा जहाज़ बम्बई पहुँचेगा।
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