जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
रात के लिए जहाज़ पर फैन्सी-ड्रेस-शो आयोजित किया गया था। मुझे नहीं याद है कि बावा ने या मैंने उसमें कोई खास भाग लिया। अगर हम अपने प्रियजनों के पास पहुँच रहे थे तो हमारी समस्याएँ भी हमें घूरती नज़दीक आ रही थीं। हमारे साबर-मन्त्र का प्रभाव अपनी अवधि समाप्त कर घटने लगा था। फिर भी अपनी ज़मीन पर पाँव रखने की आतुरता तो हमारे मन में थी ही।
रात देर तक चलने वाले खेल-तमाशे के बाद हम अपनी-अपनी कुर्सियाँ डेक पर ही डालकर लेट गये. प्रभात की पहली किरणों के साथ हम अपने देश की धरती के दर्शन करेंगे।
सुबह छह बजे से ही कुछ हिन्दुस्तानियों ने दूरबीन की सहायता से और हमने उसके अभाव में आँखों पर ज़ोर डालकर ही भारत के समुद्र-तट की धुंधली-सी रेखा देखनी शुरू कर दी। हमें लग रहा था, जैसे वह धरती के नयनों की कोर है जिससे वह हमारी सतत परीक्षा कर रही है। अपने देश की धरती नहीं, धरती माता की, माटी की, अपनी माटी की सन्तानों की प्रतीक्षा, जो कई दिनों से पानी-ही-पानी की सतह पर उतरा रही थीं।
जहाज़ 16 जून को लन्दन से रवाना हुआ था। इन 18 दिनों में कभी भी उसकी चाल इतनी धीमी प्रतीत नहीं हई-स्वेज़ कनाल में भी नहीं...जितनी आज के तीन घण्टों में। नहा-धोकर डेक पर आया हूँ-किनारा दूर है। सामानादि ठीकठाक करके आया हूँ-किनारा दूर है। नाश्ता-वाश्ता करके आया हूँ-किनारा दूर है। यात्रा के साथियों से विदा लेकर डेक पर आया हूँ-और किनारा अब भी दूर है। और सहसा अब किनारा निकट आने लगा है तो जल्दी-जल्दी पास, और पास आता जाता है। दिन चढ़ने लगा है, हरे-हरे पेड़ों के कहीं आगे, कहीं पीछे, कहीं उनके बीच, कहीं लाल ईंटों के, कहीं सफेद चूने-पुते मकान, कहीं ऊँचे, कहीं नीचे दिखाई दे रहे हैं। और अब तो आदमी, जानवर, गाड़ियाँ, छोटी-छोटी पर साफ दिखती हैं। समुद्री चिड़ियाँ जैसे जहाज़ का स्वागत करने को उसके चारों ओर मँडलाने लगी हैं और उसके साथ-साथ उडती उसे किनारे पर ले जा रही हैं। जहाज़ तट पर लग गया है। कितने लोग अपने मित्रों-सम्बन्धियों का स्वागत करने आये हैं, हाथों में बम्बइया फूल-पत्तियों की मोटी-भारी मालाएँ लिये, चमकीले तांगों से चमकती। बम्बई उतरनेवाले यात्री डेक पर आ गये हैं। डेक पर, तट पर खड़े लोग आँखे-ही-आँखें हो रहे हैं। दोनों ओर प्रत्याशित व्यक्तियों की तलाश में आँखें एक से दूसरे चेहरे पर फिसलती तट और डेक की लम्बाइयाँ नाप-नाप आती हैं।
तेजी ने मुझे केम्ब्रिज में ही सूचित कर दिया था कि वे बम्बई नहीं आ सकेंगी, बम्बई पहुँचने पर जो पहली गाड़ी मिले, उससे मैं इलाहाबाद के लिए रवाना हो जाऊँ, उन्हें तार दे दूँ, वे स्टेशन पर मेरा स्वागत करेंगी। फिर भी, इस पर मुझे पूरा विश्वास नहीं हुआ था। मुझे आश्चर्याल्हादित करने को तो न उन्होंने ऐसा लिख दिया हो कि जब मैं उनकी प्रत्याशा न कर रहा हूँ, वे सहसा प्रकट हो जायें।
मेरी आँखें तट के एक छोर से दूसरे छोर तक उन्हें खोज-खोजकर थक गयीं। वे नहीं आयी थीं। यह कल्पना मेरे लिए दुःखदायी थी कि शायद पैसों के अभाव ने उन्हें आने से रोका होगा। अपनी आर्थिक विवशता में इस समय वे कितनी उदास होंगी! सोच तो रही होंगी इस समय कि मेरा जहाज़ बम्बई आ गया होगा और मैं...
मुझसे कुछ दूरी पर बावा खड़ा था। उसे भी इसकी कोई प्रत्याशा न थी कि उसका स्वागत करने को कोई बम्बई आयेगा। वह भी किन्हीं खयालों में डूबा, उदास, डेक पर खड़ा था, रेलिंग पर झुका, शून्य में घूरता, जैसे यहीं से पंजाब के किसी कस्बे में बसे अपने परिवार के लोगों को देखने की कोशिश कर रहा हो।
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