जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मैंने उसे गुदगुदाने की सोची। उसके पास जाकर बोला, 'चलो, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ।' और उसके गले में माला पहनाने का अभिनय किया। फिर मैंने कहा, 'अब तुम इसी तरह मेरा स्वागत करो।' हम दोनों ही एक-दूसरे से गले मिलकर खूब हँसे।
इतने में देखता हूँ कि जहाज़ से तट पर उतरने के लिए पुल जोड़ दिया गया है और मंगलाबाई और शंकराबाई खेतान एक बड़ी-सी माला लिये ऊपर आ रही हैं। उन्होंने मुझे माला पहनाई, 'डा० बच्चन का स्वागत।' फिर दोनों बहनें मेरे अगल-बगल खड़ी हो गयीं, एक फोटोग्राफर ने हमारी तस्वीर भी ले ली। मैंने दोनों बहनों से बावा का परिचय कराया।
तटकर अधिकारियों ने सामान के बारे में मुझसे जितने सवाल पूछे, उतने तो मेरे वाइवा के परीक्षकों ने भी न पूछे होंगे। फिर भी मुझसे बिना कुछ पुजाये उन्होंने मेरा पिण्ड न छोड़ा।
हमें मंगलाजी अपने घर लिवा ले गयीं-पीरामल हाउस, वर्ली में। बावा ने 3 की शाम को ही अपने घर के लिए प्रस्थान करने का आग्रह किया। मुझे 3 को इलाहाबाद जाने देने को मंगलाजी तैयार न हुईं। उस रात उन्होंने मेरे स्वागत में अपने यहाँ एक गोष्ठी का आयोजन कर रखा था। बोलीं, 'आपके बम्बई के परिचित, प्रशंसक, मित्र आपसे मिलना चाहेंगे और हम आपकी नयी कविताएँ आपके मुख से सुनना चाहते हैं जो पिछले दो वर्षों से 'धर्मयुग' आदि पत्रों में निकलती रही हैं।' मैं उनकी ज़िद न टाल सका।
घर के लिए मेरी उत्सुकता देखकर मंगलाजी ने इलाहाबाद के लिए एक ट्रन्ककाल बुक कर दी और जल्दी ही लाइन मिल गयी। तेजी और बच्चे आश्वस्त हए कि मैं देश पहँच गया है. मैं आश्वस्त हआ कि वे लोग कशल-मंगल से हैं। कुछ और बात के लिए दोनों ओर मन बहुत भारी था। मैं सिर्फ इतनी सूचना दे सका कि 4 को कलकत्ता मेल से चलकर 5 की शाम को इलाहाबाद पहुँच रहा हूँ।
शाम को हम लोग बावा को स्टेशन पर छोड़ने गये। पिछले दो वर्षों मंच केम्ब्रिज में प्रायः रोज़ मिलने, महीनों साथ रहने से हम एक-दूसरे के बहुत निकट आ गये थे। एक-दूसरे से कोई दुराव-छिपाव नहीं, एक-दूसरे को समझने के लिए दिली आपसदारी, एक-दूसरे की व्यस्तता या फुरसत में, बगैर हस्तक्षेप किये हुए, जहाँ भी आवश्यक हो, परस्पर सहयोग। घर से दूर, परदेस में, एक-दूसरे को बड़ा सहारा थे। बावा का मुझ पर अतिरिक्त एहसान था। किफायत से रहने के व्यावहारिक तरीकों में मुझे दीक्षित करके, उसने मेरे लिए यह सम्भव किया था कि केम्ब्रिज में दो वर्ष बगैर बहुत कठिनाई के रहकर मैं अपना कार्य पूरा कर सकूँ। अन्त में, अपनी किफायत से बचाये हुए सौ पौण्ड से मेरी मदद कर उसने मुझे जीवन-भर के लिए ऋणी बना दिया था। मैं उसका सौ पौण्ड यथासमय चुकाकर भी ऐसा अनुभव करता हूँ कि उसे सौ बार भी चुकाकर मैं उससे ऋण-मुक्त नहीं हो सकता।
हमको अब अलग होना था। और एक-दूसरे से अलग-एकाकी अपनी-अपनी मुसीबतों, मुश्किलों से निबटना था। गाड़ी छूटने में अभी देर थी, पर हम दोनों ही चुप प्लेटफार्म पर खड़े थे, जैसे इस समय जो बहुत कुछ कहने को भीतर-भीतर उमड़ रहा है, उसकी भाषा चुप्पी है। हम एक-दूसरे की भावनाएँ आँखों-आँखों में समझ रहे थे। गाड़ी ने सीटी दी तो हमने एक-दूसरे के हाथों को ज़ोरों से दबाया, जैसे हमने आपस में कोई वादा किया हो। हाँ, हमने एक वादा किया था और वह वादा हम दोनों ही आज तक निभाते चले आ रहे हैं। वादा क्या था, इसे आपकी कल्पना पर छोड़ता है। यह वादा मेरी बहत बडी ताकत है और अगर आप बावा से कभी पूछे तो वह भी मेरा खयाल है, इन्हीं शब्दों को दोहरायेगा। वह आजकल होशियारपुर में व्यवस्थित है और वहाँ के गवर्नमेन्ट कॉलेज में गणित (सांख्यिकी) का प्राध्यापक है।
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