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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


आज का दिन मेरे मन पर बड़ा भारी था। सुबह तेजी की असफल प्रतीक्षा, दिन को फोन पर उनकी भाव-भीगी आवाज़, शाम को बावा से विदा। मेरा जी चाहता था, किसी से न मिलूँ, न कुछ खाऊँ, न पिऊँ,दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लूँ और बिस्तर पर जा गिरूँ। उधर मंगलाजी के मेहमान आ रहे थे, उन्होंने तीस-चालीस मित्रों-सहेलियों को खाने पर बुला लिया था, ड्राइंग रूम में बैठे लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी बातचीत, हँसी-ठट्ठे की आवाज़ फ्लैट-भर में गूंज रही थी... तेजी मेरे लौटने के आखिरी चौबीस घण्टों के मिनट-मिनट गिन रही होंगी...बावा पंजाब मेल के डिब्बे में बैठा ‘अपनी विधवा माँ और अनाथ भाई-बहन को किस हालत में पाऊँगा' की चिन्ता में डूबा होगा...

मैंने अपने से कहा, इस समय अपने में सिमटे रहना ठीक न होगा, बाहर निकलो! मैंने सिर के एक झटके से अपना मूड बदला, स्नान किया, जैसे मुझ पर से दिन-भर का सारा गर्द-गुबार धुल रहा हो, तेज नारायण-मंगलाजी के पतिदेव-से एक ढीला पाजामा और तनज़ेबी कुर्ता उधार माँगा-मँगनी के कपड़ों में केम्ब्रिज की डॉक्टरेट ले आया, अब किसी अवसर पर किसी के मँगनी के कपड़े पहनने में क्या शर्म! मंगलाजी से बोला, 'घर में कोई इत्र हो तो मुझे लगा दो।' और खुश-खुश ड्राइंग रूम में आ गया। खिड़की से देखा, दूर समुद्र ठाठे मार रहा था। समुद्र कम गम्भीर है? पर ऊपर-ऊपर कैसा अट्टहास कर रहा है। आज एक छोटे-से समुद्र का अभिनय तुम भी करो।

कमरे में कई टेप-रिकार्डर लगे थे। मंगलाजी ने गोष्ठी रचाई थी, मेरी नयी कविताएँ सुनवाने के लिए और लोग हैं कि सुनना चाहते हैं 'मधुशाला', 'इस पारउस पार'। कहता हूँ, 'भाई, अब तो उस पार से इस पार आ गया।' लोगों का मन रखना पड़ता है। मड को हल्का रखने के लिए एक फ़िलबदी शरू कर देता हूँ, 'अच्छा, मेरा नया 'आत्म-परिचय' सुनिये' :

मैं हूँ बच्चनजी मस्ताना,
लिखता हूँ मस्ती का गाना,
मैंने खोली है मधुशाला,
जिसमें रहती है मधुबाला,
जिसके हाथों में घट-प्याला,
मुझको निशा-निमन्त्रण आया,
मैंने गीत अकेले गाया,
('एकान्त संगीत' की ओर संकेत)
सुनकर सबका दिल घबराया,
('आकुल अंतर' की ओर संकेत)
मुझ पर क्या रंगीनी छाई,
मैंने सतरंगिनी सजाई,

बीच की पंक्तियाँ भूल रहा हूँ, जिनमें मेरी और रचनाओं की ओर इशारा था। आखिर की कुछ पंक्तियाँ शायद यों थीं-

मैंने प्रणय-पत्रिका भेजी,
पढ़कर बहुत खुश हुई तेजी,
डिग्री लाया हूँ केम्ब्रिजी
मुझको कहो डॉक्टर ए जी।
लेकिन नब्ज नहीं दिखलाना,
मैं हूँ बच्चन जी मस्ताना...

कमरे में हँसी के फौआरे छूट गये और जैसे मैं उसी में नहा उठा।

मैंने पढ़ना बन्द किया तो लोगों ने टेप चला दिये। भवानी भाई पास बैठे थेअनुप्रास की महिमा देखिये कि भवानी' के साथ 'भाई' कैसा चस्पा हुआ है- उन्होंने साहित्यिक भाषा में मेरे कान में कहा, 'भैया, यह आत्म-विदूषकत्व आपको शोभा नहीं देता, हम आपकी गणना महाकवियों में करते हैं, कुछ गम्भीर सुनाएँ...' मुझे नहीं मालूम था कि भवनियाँ इतना बड़ा मुहर्रमी है। मैंने कहा, 'भवानी, तुम मेरा मूड नहीं समझ रहे हो, आज मैं अपना मज़ाक नहीं बनवाऊँगा तो खिड़की से कूद जाऊँगा।'

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