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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


खैर, कुछ और कविताओं के बाद 'मधुशाला' हुई। नयी कविताओं तक लोगों ने आने ही नहीं दिया। मेरे काव्य-पाठ का कोई यज्ञ बिना 'मधुशाला' के शान्ति-पाठ के पूर्ण नहीं समझा जाता। लोग श्राद्ध कराके ही तृप्त हुए– 'प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना...'

मेहमान विदा हुए तो हास-उल्लास की वह हल्की चादर भी खींचकर ले गये जो मैंने ऊपर से ओढ़ रखी थी। अब मैं नंगा था, अकेला, अपनी प्राकृतिक मनःस्थिति के लिए खुला। ऐसा लगता था, जैसे तीन घण्टे जादू की दरी पर उड़ने के बाद सहसा ज़मीन पर गिर पड़ा हूँ-शरीर भारी-भारी, मन दबा-दबा, साँस घुटी-घुटी। समुद्र बहुत अशान्त था, वर्षा होने लगी थी और हवा का झोंका जब कमरे में आता था, तब सौ-सौ बूंदों से बदन को नम कर देता था। आधी रात से ऊपर हो चुकी थी। मुझे पता नहीं, किस समय उस अर्ध-बेहोशी की अवस्था में मैं अगाध निद्रा में ढुलक गया।

तेज नारायण ने 4 को कलकत्ता मेल से, फर्स्ट क्लास में एक नीचे की बर्थ मेरे लिए रिजर्व करा दी। कूपे था, ऊपर की बर्थ पर कोई आया नहीं। डिब्बे में मेरा सामान और मैं अकेला और पिछले की याद और अगले की चिन्ता करने को कितना कुछ। पिछला तो जहाज़ की फुरसत-ऊबी घड़ियों में कितनी बार किसी फिल्म की रील की तरह आँखों के सामने से गज़र चुका था-12 अप्रैल, 1952 को बम्बई के सांताक्रुज हवाई अड्डे से विमान द्वारा लन्दन के लिए प्रस्थान करने से लेकर 16 जून, 1954 को लन्दन के टिलबरी यार्ड से जहाज़ द्वारा बम्बई के लिए रवाना होने तक-बीच में नवीन अनुभवों-संवेदनाओं, परिस्थितियों-प्रतिसमाधानों, परिचयोंप्रीति सम्बन्धों, सुविधाओं, असुविधाओं, आशाओं-आशंकाओं, आकर्षणों-विकर्षणों, दुर्बलताओं-दृढ़ताओं, अवसादों-उल्लासों और कभी-कभी दोनों से परे सुनसानों दिवास्वप्नों, निशास्वगतों और सबके ऊपर दिन-दिन स्वाध्याय, रात-रात सृजन की समाधिस्थ घड़ियों की कितनी कड़ियाँ!-जो सब-की-सब केम्ब्रिज युनिवर्सिटी के सेनेट हॉल में पी-एच०डी० की डिग्री प्राप्त करने के अवसर से जुड़ जाती-यह अवसर न आता तो सब न जाने कहाँ टूट-बिखर जाती। मेरा जीवन इतना विविधतापूर्ण, इतना कार्य-व्यस्त, इतना भाव-विचार-ग्रस्त शायद ही कभी रहा हो।

अब अगले की चिन्ता बराबर सिर उठाती है-घर-परिवार को किस दशा में पाऊँगा? विश्वविद्यालय में अपनी स्थिति अब क्या रहेगी? देश में, विदेश में मेरे सृजन का क्या मूल्य लगाया गया होगा? हिन्दी कवियों में शायद मैं पहला व्यक्ति हूँ जिसने योरोप की धरती पर पाँव रखा है, इंग्लैण्ड-आयरलैण्ड के संस्कृति-साहित्य से इतना घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित किया है, विदेश की धरती से इतनी रचनाएँ की हैं। मेरा नया ज्ञानानुभव क्या मेरी अभिव्यक्तियों को कोई नया मोड़ देगा?...मगर सबसे पहले और सबसे अधिक तो मुझे घर की चिन्ताएँ खायेंगी। स्थिति शायद मेरी आशंका से अधिक बिगड़ चुकी है।

कल इस समय इलाहाबाद पहुँच जाऊँगा। सारी वस्तुस्थिति का सामना होने में 24 घण्टे ही तो बाकी हैं-वस्तुस्थितियाँ अपने आप ही कुछ सोचने-करने को विवश करेंगी और मेरी सारी लब्धियाँ-उपलब्धियाँ मुझे कसौटी पर कसेंगी। बस, ये अन्तिम 24 घण्टे हैं जिनमें मैं इस कशमकश से अपने को मुक्त रख सकता हूँ। ये मेरे दो वर्ष तीन मास एक प्रकार के पलायन ही तो थे-ठीक 5 अप्रैल को इलाहाबाद से चला था, ठीक 5 जुलाई को इलाहाबाद लौट रहा हूँ। मैं अपने पलायन के 24 घण्टे और भोग लूँ।

रात कटी, प्रात: आया। गाड़ी मध्यप्रदेश के किसी भाग से जा रही थी और दिन-भर स्टेशन-पर-स्टेशन पार करती अब सूर्यास्त के पश्चात् बरसाती सन्ध्या की लाली में जमुना पुल पर धड़-धड़ करती इलाहाबाद नगर में प्रवेश कर रही थी।

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