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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


दाहिनी ओर किला, किले के नीचे संगम, बायीं ओर गंगा से मिलने की आतुरता में जमुना का सवेग प्रवाह, सामने क्रिश्चियन कॉलेज, इसके पीछे कटघर, वहीं हमारा पुराना घर, और अब सडक के ऊपर बना पत्थर का पल-सड़क, दाहिनी ओर बाई के बाग को जाती हई, बायीं ओर चौक को-और लो दाहिनी ओर म्योर कॉलेज का टावर, नज़दीक ही सेनेट हॉल का टावर-घड़ी वाला-और अब सूरजकुण्ड, दाहिने बिजली घर, पीछे कायस्थ पाठशाला, बायें चौक को जाती सड़क, घण्टाघर की एक झलक... जगह-जगह से जुड़ी स्मृतियाँ जागने भी नहीं पाती कि गाड़ी आगे खींच ले जाती है और लो, अब प्लेटफार्म आ गया है-गाड़ी रुक गयी है।

खिड़की से गर्दन निकालकर देखता हूँ। यह जो लड़का उचक-उचककर डिब्बों को देखने का प्रयत्न कर रहा है, यह तो अमित है, अजित को कोई गोद में उठाये है, दोनों ने मुझे पहचान लिया है, हाथ हिलाता हूँ, और ये हैं तेजी, इनके बदन पर फूलों के गहने हैं। (क्या इसके पीछे कोई संकेत है?) साथ और दो-चार परिचित चेहरे, जिनमें एक मेरे वृद्ध मामाजी का है, एक मेरे भाँजे राम का, एक-दो मेरे कटघर के पुराने मित्रों का, दो-एक मेरे पुराने विद्यार्थियों का।

अमित-अजित देखने में स्वस्थ लगते हैं, अजित को मैं गोद में उठा लेता हूँ, अमित ने मेरा सामान उतरवाना शुरू कर दिया है, गिनना, सँभालना। बारह का होने को है, समझता है-अब वह बड़ा हो गया है और ज़िम्मेदारी के काम में इसे बड़ी का हाथ बँटाना चाहिए। तेजी के स्वास्थ्य से निराश होता हूँ, क्या कर डाला है उन्होंने अपने शरीर को, गहनों के फूलों का ताज़ापन भी उसकी कुम्हलाहट को नहीं छिपा सकता, शायद और ज़ाहिर कर रहा है। पर स्टेशन पर ज़्यादा कुछ पूछने का मौका नहीं है। राजन को भी यहाँ देखने की प्रत्याशा कर रहा था, मालूम हुआ, उनके पिता बीमार हैं, वे कुछ दिन हुए बाँदा चले गये हैं। स्टेशन पर जो लोग मिलने आये थे, उनसे स्टेशन पर ही विदा ले ली।

कुछ सामान ताँगे, कुछ मोटर में डाल हम लोग घर आये, 17, क्लाइव रोड, ललिताश्रम-बहुत बड़ा मकान, चार हिस्सों में किराये पर उठा। फाटक में घुसते ही मैंने मज़ाक किया-'जान बची लाखों पाये, घर के बुद्धू घर को आये।'

घर प्रायः वैसा ही, जैसा छोड़कर गया था, तेजी ने, जब हम इस घर में आये थे, मेरे अध्ययन-कक्ष के सामने एक लता-मण्डप बनवाया था, जिस पर दो तरह की बेलें चढ़वायी थीं-दोनों के फूल नीले, गिलासनुमा, पर एक दिन को फूलती, रात में उसके फूल बन्द हो जाते, दूसरी रात को फूलती, दिन में उसके फूल बन्द हो जाते। तेजी ने कभी सोचा भी न होगा कि ईट्स इन एक-दूसरे से उल्टी जाती लताओं को बहुत पसन्द करते। रात वाली बेल के फूल इस समय गहगहाकर फूले हुए थे।

सामने का लॉन वैसा ही हरा था। उसके पार बेलों की ऊँची बाड के पास, सीमेन्ट का गोल तालाब, पानी भरा, पर वे नीले, सफेद, लाल कमल उसमें नहीं, जो मैंने कभी लगाये थे,

कौन श्यामल, श्वेत और औ रतनार नीरज-
के निकुंजों ने तुझे भरमा लिया है?

बगल के हिस्से में गुलाब के पौधे कुछ और बढ़ गये थे। पीछे नीबू के पेड़ों की कतार वैसी ही खड़ी थी, लॉन के उधर केलों की गाछ भी। रसोई के सामने कुछ साग-सब्जी लगाई जाती थी, अभी नहीं लगी।

तेजी अपनी नयी महराजिन का परिचय देती हैं, 'खाना बहुत अच्छा बनाती है।'

महराजिन टुप से बोल देती है, जब सरकार, सामानौ अच्छा होय।' (मतलब?)

सबने साथ बैठकर खाना खाया। शुक्र है, यह दिन भी आया।

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