जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
अमित-अजित का कौतूहल पल-पल बढ़ रहा था जानने को कि इंग्लैण्ड से क्या चीज़ उनके लिए आयी हैं।
वे अपना-अपना उपहार सिरहाने रखकर सो गये। रात ज़्यादा हो चुकी थी।
सब कुछ अपने चारों ओर प्राय: वैसा ही पाकर भी, जैसा छोड़कर मैं गया था, मुझे लग रहा था कि जैसे इस सब के पीछे कुछ खाली-खाली, खोखला-खोखला है, जैसे दीमक कभी-कभी किताबों में इस भाँति लगती है कि बाहर से तो वे जैसी की तैसी दिखती हैं, पर भीतर से उन्हें वे सफाचट कर चुकी होती है।
तेजी मेरे साथ एकान्त पाने को बेताब हो रही थीं। और जब घर की सब बत्तियाँ बुझा दी गयीं, तब वे उस अँधेरी बरसाती रात के सन्नाटे में एक छिन्न लता की भाँति निराधार-नि:सहाय मेरे ऊपर गिर पड़ीं। उनकी साँसें ऐसे चल रही थी जैसे कोई थककर टूटा, त्यक्ताश तैराक अपनी समाप्तप्राय शक्ति के अन्तिम प्रयत्नों से किनारे को किसी तरह पकड़ हाँफ रहा हो।
कितनी देर बाद वह कुछ कहने की स्थिति में हुईं, मुझे कुछ पता नहीं, और जब बातें शुरू हुईं तो रात खत्म हो गयी, बातें खत्म नहीं हुईं। मैं तो समझता था कि दिनानुदिन मिलने वाले उनके पत्रों से मैं यहाँ के तियाँ--तियाँ समाचार से भिज्ञ हँ. पर जो मुझे बताया गया था, जो मैंने जाना या अनुमाना था, वह तो बहत सतही था, और अब जो यहाँ के हालात की असली शक्ल मेरे सामने नुमायाँ हो रही थी, उसे देखकर आश्चर्य मुझे इस बात पर था कि मेरे बाल सहसा सफेद क्यों नहीं हो गये और मेरे पाँवों के नीचे से धरती खिसक क्यों नहीं गयी!
और अगर यह पाँवों के नीचे से धरती खिसकाने वाली बात नहीं थी तो और क्या हो सकती थी।
कि तेजी का आखिरी ज़ेवर बेचा जा चुका था,
कि बैंक से आखिरी पैसा निकाला जा चुका था,
कि घर का आखिरी दाना पकाया जा चुका था!
और दूसरे दिन का राशन उस पाँच पौण्ड में से आया था जिनको मैंने जहाज़ पर 75/= रुपयों में बदलवा लिया था।
युनिवर्सिटी से जो मैं 27 महीने अध्ययन-अवकाश पर था, उनमें से केवल 10 महीने की छुट्टी मुझे सवेतन मिली थी।
मेरे दो प्रकाशकों में से एक ने दो वर्षों में रायल्टी के हिसाब में कानी कौड़ी न दी थी, और दूसरे ने 'सोपान' की अग्रिम रायल्टी के रूप में 3000/=क्या दिये थे, मानो उन्होंने मेरी सारी किताबों का कापीराइट ही खरीद लिया था, यानी उन्होंने भी वार्षिक रायल्टी का हिसाब देना बन्द कर दिया था।
रेडियो, कवि-सम्मेलनों से होने वाली आमदनी की मेरे प्रवास में होने के कारण कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
ले-दे के आते थे कुछ पैसे तो पारिश्रमिक के रूप में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं से, जिनमें छपने को अपनी कविताएँ मैं विदेश से भी भेजता रहता था-ऊँट के मुँह में ज़ीरा!
भारतीय नारी आभूषणों को बड़े चाव से बनवाती, पहनती और प्राण-पण से उनकी रक्षा करती है, पर जब उसके या उसके परिवार के मान, मर्यादा का सवाल उठता है तो वह उतने ही विरक्त भाव से उन्हें अपने बदन से उतारकर अलग कर देती है। हमारे परदादा नायब साहब के बाद, दुर्भाग्यवश, हमारे परिवार की कोई पीढ़ी ऐसी न गयी जिसके मान, मर्यादा को किसी-न-किसी आर्थिक संकट ने चुनौती न दी हो। और इन चुनौतियों का सामना कर मेरी दादी, मेरी माँ, मेरी पूर्व पत्नी श्यामा ने खानदान की इज्जत बचाई थी। तेजी ने वही परम्परा निभाई।
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