दस-बारह बरस पहले शोध का जो काम मैंने आरम्भ किया था वह केवल इसलिए नहीं कि उस समय और कुछ करने को नहीं था। जब से मैं ईट्स की कविता से परिचित हुआ था तभी से मैं उसके प्रति आकर्षित था। उनका या उन पर जो भी साहित्य मुझे मिलता था, मैं रुचिपूर्वक पढ़ता था, उस पर विचार करता था। उनके विषय में जिस पहली बात का आभास मुझे हुआ था, वह यह थी कि वे अपने समकालीन अन्य अंग्रेज़ कवियों से बहुत भिन्न थे और इस भिन्नता को लाने में किसी दर्जे पर भारतीय संस्कृति और साहित्य के सम्पर्क ने कोई भूमिका अवश्य अदा की होगी। कुछ अन्य असाधारण सम्पर्कों के संकेत भी मुझे मिलते थे, पर मैं उन पर उँगली रख सकने में असमर्थ था। इनको प्रामाणिक रूप से जानना और ईटस के मस्तिष्क और कला पर इनके प्रभाव को आँकना मेरे शोध का विषय हो सकता था। लेकिन समुचित स्वाध्याय-सामग्री और आधिकारिक निर्देशन के अभाव में है ठीक दिशा में कदम न उठाये थे। उन दिनों शेक्सपियर के आलोचना-साहित्य में एक पुस्तक को बहुत महत्त्व दिया जाता था-Dowden (डाउडेन) Shakespeare : His Mind and Art (शेक्सपियर : उनका मनस् और उन कला) को। वह पुस्तक मैंने पढ़ी भी थी, और सम्भवत: उसी से प्रेरणा लेकर मैं अपने शोध का विषय W. B. Yeats : His Mind and Art रख लिया था। बहुत जल्द मुझे यह अनुभूति हो गयी थी कि मैं एक ऐसे वृक्ष के फूल-फल हो पकड़ना चाहता हूँ जिसके मूल-तने का मुझे कुछ पता नहीं है, और यह काम पर अधूरा ही छोड़ देना पड़ा था।
छोड़ तो मैंने दिया था, पर भुला नहीं दिया था। अधूरी छूटी चीज़े मुझे बहुत परेशान करती हैं। वे रह-रहकर मुझे अपनी याद दिलाती हैं, पूरी करने को आमन्त्रित करती हैं, चुनौती देती हैं। अब जब इंग्लैण्ड जाने और वहाँ किसी युनिवर्सिटी से सम्बद्ध होने की सम्भावना दिखी तो इस अधूरे काम ने मुझे एक बार फिर कुरेदा-बहुत समय से मैंने इसे लटका रखा है, अगर इस मौके से चूका तो फिर यह जीवन-भर अटका ही रहेगा। ब्रिटिश कौंसिल से मार्ग-व्यय पाने के पहले दो काम करने थे-किसी ब्रिटिश युनिवर्सिटी में प्रवेश पाना था और 5000/- रुपये नकद का इन्तज़ाम करना था। दोनों काम मुश्किल थे, पर असम्भव नहीं। ज़िन्दगी-भर मुश्किलों से ही तो टक्कर लेता रहा हूँ। एक बार और सही।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है 'फर्स्ट थिंग्स फर्स्ट'-अर्थात् जो चीज़ अधिक महत्त्व की हो उसकी ओर पहले ध्यान दो। सोचा, किसी युनिवर्सिटी में प्रार्थना-पत्र भेजकर देखू कि प्रवेश मिल भी सकता है कि नहीं।
तेजी से मैंने चर्चा चलाई तो मेरे इंग्लैण्ड जाने की सम्भावना पर उन्होंने अपना हर्ष व्यक्त किया और अपनी ओर से हर प्रकार का सहयोग देने का आश्वासन दिया। छह महीने का वक्त होता ही कितना है, हँसते-खेलते गुज़र जायेगा।
तबीयत अपनेराम को ऊँची मिली है-'मति अति नीच ऊंच रुचि आछी'। किसी ब्रिटिश युनिवर्सिटी में दाखिला माँगना है तो इंग्लैण्ड की सबसे बड़ी और विश्व-विश्रुत युनिवर्सिटियों में क्यों न माँगा जाये; यानी केम्ब्रिज या ऑक्सफोर्ड में, न कि लन्दन, लीड्स, ब्रिस्टल या नाटिंघमशायर में।
विश्राम तिवारी की बुद्धि तो कुशाग्र न थी, पर ठेठ ग्रामीण की व्यावहारिक सूझ-बूझ उनमें खूब थी। तिवारीजी कहा करते थे कि जब आदमी शिकार पर निकले तो उसे अपने तरकस में दो तीर रखकर चलना चाहिए कि एक खता कर जाये तो दसरा तो निशाने पर बैठे। मैंने केम्ब्रिज-ऑक्सफोर्ड दोनों यनिवर्सिटियों में प्रार्थना-पत्र भेज दिये। प्रार्थना-पत्र में अपनी अकादमिक योग्यता और अनुभव के साथ ही मैंने अपने कवि और लेखक होने की भी चर्चा कर दी, कुछ रचनाओं के नाम भी दे दिये। 'मधुशाला' के अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रति भी साथ लगा दी जो वर्ष पूर्व The House of Wine (दि हाउस आफ वाइन) के नाम से लन्दन से प्रकाशित हो चुका था।