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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


इस अनुवाद की भी एक रोचक कहानी है। अनुवादिका थीं मार्जरी बोल्टन, पर उनको हिन्दी बिल्कुल नहीं आती थी। बात ऐसी हुई कि जिस समय मार्जरी ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से बी० लिट० करने की तैयारी कर रही थी, उत्तर भारत का एक विद्यार्थी आर०एस० व्यास नाम का, वहाँ पहुँच गया। वह मार्जरी को प्रेम करने लगा और जब-तब ‘मधुशाला' की रुबाइयाँ उसे सुनाया करता, शायद मेरी ही ट्यून में, जो सम्भव है, मुझसे ही उसने किसी कवि-सम्मेलन में सुनी हो। वह ट्यून मार्जरी को इतनी मोहक लगी कि उसने कविता की पंक्ति-पंक्ति का अर्थ पूछना शुरू कर दिया। मार्जरी में पद्य-प्रतिभा थी, उसने अर्थ को पद्यबद्ध कर डाला। इस प्रकार एक अंग्रेज़ प्रेमिका और भारतीय प्रेमी के रसमय क्षणों की साक्षी के रूप में 'मधुशाला' का अंग्रेज़ी अनुवाद The House of Wine के नाम से तैयार हुआ। जब उसके छपने की योजना बनी तो मेरी प्रार्थना पर, पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने उसके लिए फोरवर्ड लिख दिया था।

मेरी अकादमिक योग्यता और अनुभव में कुछ ऐसा न था जिसे विशिष्ट कहा जाय, पर मेरे सर्जक ने, मेरा ऐसा अनुमान है, निश्चय ही, युनिवर्सिटी अधिकारियों का ध्यान विशेष रीति से मेरी ओर आकर्षित किया होगा। मुझे केम्ब्रिज में दो टर्म, यानी छह महीने के लिए और उसके बाद ऑक्सफोर्ड में तीन टर्म के लिए एडमिशन मिल गया। दोनों जगह सफल होने की मुझे स्वप्न में भी आशा न थी। भय यही था कि कहीं दोनों जगह विफल न होऊँ। कहावत सुनी थी कि भगवान् जब देना चाहता है तब छप्पर फाड़कर देता है। किसी ने उस गरीब की कल्पना नहीं की जिसे भगवान् तो छप्पर फाड़कर दे पर उसके पास दिये हुए को समेटने के लिए झोली ही न हो।

जिस दिन विश्राम तिवारी ने मुझसे दो तीर तरकस में रखकर चलने की बात कही थी, उस दिन अपनी संशयात्मक बुद्धि से, जो मुझमें लड़कपन से मौजूद थीएक विनोदी प्रवृत्ति बनकर, मैंने उनसे पूछ दिया था, '...लेकिन, पण्डितजी, अगर दोनों तीर खता कर जाएँ तब?' पण्डितजी ने फौरन जवाब दिया था, "तब उसे शिकारी बनने के हौसले को बलाए-ताक रखकर भैंस चराने के लिए निकल जाना चाहिए।' मैं उनसे पूछना भूल गया था कि अगर दोनों तीर अपने-अपने निशाने पर बैठ जायें तो? इसीका जवाब मुझे आज चाहिए था। शायद वे कहते कि ऐसे सव्यसाची में दोनों शिकारों को साथ लाने की ताकत भी चाहिए।' तीर तो लग चुके थे, अब इस ताकत को पैदा करने के लिए मुझे जो डण्ड-बैठकें लगानी पड़ी, उसने मुझे बड़े कष्टकर मानसिक तनावों में डाला।

बात केवल छह महीने बाहर रहने की योजना से उठी थी। कुछ अधिक आर्थिक प्रबन्ध होने पर कुछ और दिन वहाँ ठहरने का ख्याल आता था तो लगे हाथ योरोप भी देख लेने का, दुबारा कहाँ विदेश जाने का मौका मिलेगा ! एलिज़ाबेथी युग में, कहीं पढ़ा था, किसी युवक की शिक्षा तब तक पूरी न समझी जाती थी जब तक वह योरोप की यात्रा भी न कर पाये। आखिर संस्कार तो अंग्रेज़ी शिक्षा ही मन पर पड़े थे, फिर अंग्रेज़ी के माध्यम से ही सही, योरोप की सभ्यता, संस्कृति साहित्य, कला अत्यन्त परिचित लगता था। उसे अधिक निकटता से देखने के आकर्षण अस्वाभाविक न था।

अब केम्ब्रिज-ऑक्सफोर्ड में रहने के लिए ही पन्द्रह महीने के खर्च की व्यवस्था करनी थी, युनिवर्सिटी से पाँच महीने का अतिरिक्त अवकाश मिल भी सकता तो बगैर तनख्वाह के, यानी पाँच महीने घर के खर्च का भी प्रबन्ध करना था। लगता था, इतने का इंतज़ाम कर लेना मेरे लिए नामुमकिन होगा और आखिर में अपनी आशा-आकांक्षाओं पर पानी फेरकर बस बैठ जाना पड़ेगा, गो इस स्थिति की कल्पना भी मेरे मन को बहुत उदास कर जाती थी-तुमसे बहुत अधिक योग रखने वालों को, बरसों की कोशिशों और बड़े-बड़े लोगों की सिफारिशों के भी इन युनिवर्सिटियों में प्रवेश पाने में कठिनाई होती है, और तुम्हें जो यह अब अनायास मिल गया है, उसे तुम यों ही हाथ से निकल जाने दोगे! केम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड गुड़-भरी हंसिया बनकर मेरे गले में अटक गये थे। गुड़ तो मैंने खाया, पर इसके लिए गला भी कम नहीं चिरवाना पड़ा।

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