जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
शिष्ट समाज में आमदनी-खर्च की बात करना अशोभन और कुरुचिपूर्ण समझा जाता है, पर मध्यवर्ग का जीवन, व्यवहार, आदर्श, मूल्य, नैतिकता-सब अर्थ-आधारित हैं, अर्थ-परिचालित हैं। इसलिए अशिष्ट बनने का खतरा उठाकर भी मुझे कुछ अपनी आर्थिक स्थिति की चर्चा करनी होगी। उस पर मौन रहूँ तो मुझे जीवन के भी बहुत-से प्रसंगों पर मौन रहना होगा। ईमानदारी के मूल्य पर औपचारिक शिष्टता मुझे स्वीकार नहीं।
मेरे जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी और संघर्ष में बीता था, पर उन्होंने मुझे स्वावलम्बी और किसी हद तक स्वाभिमानी भी बनाया था-मं जो हूँ, जो बना हूँ, अपने बल पर, अपनी योग्यता से, अपनी मेहनत-मशक्कत से। विदेश जाने के लिए खर्च इकट्ठा करने की समस्या जब सामने आयी तो पहला विचार यही मन में उठा, इसका हल अपने बल पर ही निकालना चाहिए।
मेरे प्रकाशक बहुत दिनों से मेरी सर्वश्रेष्ठ कविताओं का एक बड़ा संग्रह निकालने का आग्रह कर रहे थे, कविताओं का चुनाव मैंने कर लिया था, नाम भी उसका सोच लिया था-'सोपान'। मैंने उनके सामने यह शर्त रखी कि अगर वे मुझे 5000/- अग्रिम रायल्टी के रूप में दे सकें तो मैं उन्हें पुस्तक प्रकाशित करने की अनुमति दे दूंगा। यह एक नयी बात थी। आज तक मैंने अग्रिम रायल्टी के रूप में उनसे एक पैसा भी न माँगा था। रकम भी कुछ कम न थी। साल-भर में मेरी सारी पुस्तकों पर इसकी लगभग आधी रकम वे रायल्टी के रूप में मुझे अदा करते थे। 'सोपान' प्रकाशित करने का उनका उत्साह ठण्डा पड़ गया। अग्रिम रायल्टी देने को वे तैयार न हए; पुस्तक प्रकाशित करने का विचार फिलहाल उन्होंने स्थगित कर दिया। प्रथम चुंबने ओष्ठ भंगः।
होठ भंग हो गये थे, पर आशा भंग नहीं हुई थी।
सोचा, हिन्दुस्तान आज़ाद हो गया है। शिक्षा का विस्तार, उद्धार, परिष्कार करने के लिए एक पूरा शिक्षा मन्त्रालय बन गया है। एक युनिवर्सिटी का शिक्षक विदेश की दो प्रसिद्ध युनिवर्सिटियों से अनुभव-समृद्ध होकर आये तो देश में शिक्षा के क्षेत्र में अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। अपनी सरकार ऐसे आदमी को सहायता देना ही चाहेगी। शिक्षा मन्त्रालय को मैंने एक प्रार्थना-पत्र भेज दिया कि मुझे कोई ऐसी छात्रवृत्ति दी जाये जो मेरे सवा बरस केम्ब्रिज-ऑक्सफोर्ड में रहने के लिए पर्याप्त हो। अपने प्रार्थना-पत्र में अपने कवि की भी कुछ चर्चा कर दी, सोचकर, कुछ अपने भोलेपन में, कि मेरे सर्जक का प्रभाव केम्ब्रिज-ऑक्सफोर्ड तक पहुँचा है तो क्या दिल्ली तक न पहुँचेगा!
कुछ दिनों तक कोई उत्तर न आया तो तेजी ने ज़िद की कि मैं दिल्ली जाऊँ और व्यक्तिगत रूप से शिक्षा मन्त्रालय के अधिकारियों से मिलूँ-'द्वारिका जाहु जू, द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै जक तेरे।' उन दिनों श्री हुमायूँ कबीर शिक्षासचिव थे-मुगलवंश के राजा और सन्त पन्थ के जोगी के मिले-जुले नाम वाले व्यक्ति के सम्बन्ध में मेरी एक अजीब-सी कल्पना थी। जिस समय डॉ० दस्तूर कलकत्ता युनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के लेक्चरर थे, हुमायूँ कबीर उनके शिष्य थे। उनसे एक परिचय-पत्र लेकर मैं दिल्ली पहुँचा। सचिव के कमरे में जाकर मैंने कुर्सी पर बैठे एक ठिगने, काले, चौड़ी नाक, चौड़े जबड़े, काली-मोटी कमानी के चश्मेवाले व्यक्ति को देखा-अपनी कल्पना के बिल्कुल विपरीत- यही हुमायूँ कबीर थे, व्यस्त-से दिखते, फुर्तीले। बोले, 'छात्रवृत्ति मिलने की तो कोई सम्भावना नहीं है।' शायद उन्होंने मुझसे बैठने के लिए भी नहीं कहा। उनके व्यवहार से मुझसे अधिक निराश तो डॉ० दस्तूर हुए। राजनीतिज्ञ ऊँचे पद पर पहुँचकर प्रायः अपने पुराने परिचितों को भुला देता है।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद शिक्षा-मन्त्री थे, सोचा-दिल्ली आया हूँ तो उनसे भी मिलकर देख लूँ। मेरठ की कमला चौधरी उन दिनों संसद सदस्या र्थी, हिन्दी की कहानी लेखिकाओं में उनका नाम था, उमर खैयाम की रुबाइयों का एक अनुवाद भी उन्होंने प्रकाशित कराया था, जिसकी पाण्डुलिपि मैंने सुधारी-संवारी थी, उसकी भूमिका भी लिखी थी। वैसे भी वे मेरी कविताओं की प्रशंसिका र्थी और उनके निमन्त्रण पर एकाधिक बार मैं मेरठ के कवि-सम्मेलनों में भाग लेने गया था। उनसे परिचय-पत्र लेकर मैं मौलाना साहब से मिला। मौलाना आज़ाद का क्या कहना! दिव्य दर्शन थे-तहज़ीब व तमदुन व तालीम के गढ़े-छीले मुतकल्लिम (बोलते हुए) पुतले। वहाँ शीनकाफ से दुरुस्त आदाब-अलकाब तो बकसरत था, पर बवक़्ते-रुखसत उन्होंने फर्मा दिया, 'जो हुमायूँ कबीर ने कहा है, उसी को आखिरी फैसला समझिये।'
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