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			 जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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			 201 पाठक हैं  | 
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
 जिस अध्यापक के पास देब साहब बैठे थे, किसी प्रसंग पर चर्चा के बीच उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर बोले, 'फलां पुस्तक तो आपने पढ़ी होगी।' और उसका कुछ वर्णन भी कर गये।
 
 उसने कहा, 'माफ कीजियेगा, मैंने यह पुस्तक नहीं पढ़ी।'
 
 थोड़ी देर बाद उसी को फिर सम्बोधित कर देब साहब ने कहा, 'हाँ, फलां पुस्तक तो आपने ज़रूर ही देखी होगी, एक समय विद्वानों में उस पर कितनी चर्चा थी-पेरिस में, न्यूयार्क में।'
 
 उसने कहा, 'मुझे अफसोस है, मैंने वह पुस्तक नहीं देखी।'
 
 तीसरी बार देब साहब फिर उसी अध्यापक से पूछ बैठे, 'क्या आपने वह किताब नहीं पढ़ी, जिस पर फलां-फलां कचहरी में मुकद्दमा चला था...'
 
 अब तो अध्यापक का धैर्य टूट गया।
 
 उसने अपनी कुर्सी देब साहब की तरफ घुमाई और बोला, 
 'Prof. Deb, could you please tell me what else you do besides reading?" 
 (प्रोफेसर देब, क्या आप यह बताने की कृपा करेंगे कि पढ़ने के अलावा आप और क्या करते हैं?) 
 
 उस पार्टी में फिर प्रो० देब ने मुँह न खोला।
 
 खैर, बाद की बात पहले, पहले की बात बाद को, ऐसा तो इस संस्मरण में कई बार होगा। पहले भी हो चुका है। स्मृति की रेखा ज्यामिति की रेखा नहीं है। और अब तक तो शायद मेरे पाठक भी मेरी लेखनी की बहक-मिज़ाजी के अभ्यस्त हो चुके होंगे। इसलिए क्षमा याचना की आवश्यकता नहीं समझता।
 
 ब्रिटिश कौंसिल के पत्र ने वह आधार ही खींच लिया जिसके ऊपर मैंने विदेश-यात्रा का महल खड़ा किया था। पाँच महीने बगैर वेतन के घर चलाने की समस्या थी ही, अब जाने के लिए मार्ग-व्यय के बारे में सोचना था, और लौटने के लिए भी। क्या विदेश जाने का विचार छोड़ दूँ? ऑक्सफोर्ड-केम्ब्रिज को लिख दूँ कि मैं नहीं आ सकता? पण्डितजी को चेक लौटा दूँ? युनिवर्सिटी से ली छुट्टी खारिज कर दूँ? स्थिति बड़ी ही उपहासास्पद लगी। जीवन कभी-कभी हमें लाकर ऐसी जगह खड़ा कर देता है कि वहाँ से एक ही निर्णय लेना सम्भव होता है और वह भी तुरन्त। मैंने अपने खर्च से ही जाने का निश्चय किया, लौटने के खर्च की बात फिलहाल दिमाग से टाल दी। जो काम मैं स्वेच्छया करने जा रहा था, अब लगा कि वह मैं विवशता से कर रहा हूँ, कर क्या रहा हूँ, कोई मुझसे करा रहा है और अब न मुझमें मुकरने का बल है, न मुकरने का मौका ही है। 
 
 दिल्ली से लौटने के बाद से ही मैं एक तरह की भीतरी कमज़ोरी का अनुभव करने लगा था। विदेश-यात्रा के लिए धन जुटाने में किसी हद तक सफल होने के बावजूद, मुझे लगता था कि जो मैंने पाया है, उसके एवज़ में कुछ अधिक मूल्यवान दे आया हूँ। किसी के सामने कुछ माँगने के लिए जाने में-चाहे अपने लिए हो, चाहे दूसरों के लिए-मैं महाभीरु और संकोची हूँ। ऐसी आवश्यकता जब-जब मेरे सामने आयी है, मैंने जहाँ तक हो सका है, उसे टालने का प्रयत्न किया है-उसके लिए सौ बहाने जानता हूँ, मेरी तबीयत खराब है, मुझे बहुत ज़रूरी काम है, सम्बद्ध व्यक्ति बाहर गया है, व्यस्त है, उपलब्ध नहीं है, वह मेरी बात क्यों मानने लगा, आदि-आदि। फिर भी ऐसे अवसर आये हैं, जब मुझे अपने लिए और दूसरों के लिए भी औरों के सामने जाना पड़ा है। जीवन में मुसीबतों की कमी नहीं रही। लेकिन अगर कोई मुझसे पूछे कि सबसे बड़ी मुसीबतें मैंने कब उठायीं तो सबसे पहले याद आयेंगे मुझे वे अवसर जब मुझे कुछ माँगने के लिए दूसरों के सामने उपस्थित होना पड़ा है-भले ही वह मेरा और दूसरों का प्राप्तव्य ही क्यों न हो। न जाने क्यों मन में विश्वास है कि मनुष्य का प्राप्तव्य तो उसे स्वयं मिल जाना चाहिए। माँगा तो केवल दाता की दया, कृपा, रियायत, मुलाहों पर जाता है। दूसरे तरह की मुसीबतें मुझे चुनौती देती हैं-अपने में जो शक्ति-सामर्थ्य हो, उससे उनका सामना करो। इस मुसीबत के सामने मैंने अपने को सर्वथा नि:शक्त और असमर्थ पाया है। निश्चय ही जब-जब ऐसे अवसर आये हैं, मेरा आध सेर खून सूख गया है। 'रहिमन वे नर मर चुके जे कहुँ माँगन जाहिं,' यक्ष-प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने भी तो कहा था, 'प्रार्थना विषं'।
 			
						
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