जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
पर विष तो अब पी चुका था, लगता था, शायद आगे और भी पीना पड़े। कुछ उपलब्ध करके ही इस विष का निराकरण किया जा सकता था। अगर विदेश जाकर शोध सामग्री एकत्र कर लाऊँ और देश लौटकर उसके आधार पर डॉक्टरेट ले सकूँ तो यही वह उपलब्धि होगी। कुछ इसी मन:स्थिति में मैं विदेश जाने के लिए कृत-संकल्प हुआ।
परिवार के बुजुर्गों में उस समय मेरे मामाजी थे, मेरी चाची थीं-गंसी चाचा की पत्नी। सोचा, जाने के पहले उनके आशीर्वाद ले लूँ। मामा वृद्ध थे, एकाकी, नि:सन्तान। बोले, 'मैंने तो समझा था, तुम मेरी मिट्टी को पार लगाओगे, कल कुछ भी हो सकता है...।' मैंने कहा, 'दिल छोटा न करें, अभी आप बहुत दिन जियेंगे, मुझे आशीर्वाद दें कि सकुशल लौटकर आपके दर्शन करूँ।' मेरी बात सच ही निकली। मेरे विदेश से लौटने के नौ वर्ष बाद वे संसार से गये और उनकी अन्तिम सेवा का अवसर भी मुझे मिला। अन्त समय में मेरी सेवा का संजोग मेरे परिवार का हर सदस्य अपने भाग्य में लिखाकर लाया था-नानी, मामी, मामा, पिता, माता, बड़ी बहिन, छोटे भाई, उनकी पत्नी, श्यामा-अपवादस्वरूप मेरी छोटी बहिन थी, जो अपनी सुसराल में मरी। मेरे रिश्तेदारों में यह कहन चल पड़ी है कि 'बच्चन ने जिसकी सेवा की वह बचा नहीं।' और यह कटु सत्य एक दु:खद स्मृति बनकर जब-तब मुझे शूल की तरह बेधा करता है, गो उसका एक विनोदी पक्ष भी है। मेरी एक रिश्ते की मामी हैं, उन्हें जीवन से बड़ा मोह है। कभी वे बीमार पड़ती हैं तो मैं उन्हें लिखता हूँ कि 'जल्दी अच्छी हो जाइये, नहीं तो मैं आपकी सेवा के लिए आता हूँ।' और मामी मेरी धमकी से फौरन अच्छी हो जाती हैं।
चाची मेरे विदेश जाने के कार्यक्रम के बारे में सुनकर कुछ आश्चर्य, कुछ क्रोध और कुछ शिकायत की मुद्रा बनाकर बोलीं, 'बेटवा, तुम तो कुल में होत आई सगरी रीत, रसम, रवाज पर हर चलाय दिहे हौ, अब का समुन्दरौ कै जात्रा करबो?' मुझे एक बात सूझी। मैंने कहा, 'चाची, हम तो हवाई जहाज़ से जाबै और सारी यात्रा में समुन्दर के एकौ बूंद से भेंट न होई।' भोली चाची आश्वस्त हो गयी और मैं उनके पाँव छूकर चल दिया। चाची असीसती हुई दरवाज़े तक आयी, 'बहुरानी के सोहाग और बेटवन के भाग से कुसल-छम से लौटौ...।'
तेजी के साथ तो पंजा पकड़कर पहुँचा पकड़ने की बात हो गयी। आगे तो पहुँचा पकड़कर हाथ पकड़ने की बात होने वाली थी। मेरा मन साफ है। ज़बरदस्ती मेरी ओर से नहीं हो रही थी, परिस्थिति मुझसे जो करा रही थी उसमें उनका भी पूरा सहयोग था। योजना कौतूहल से आरम्भ हुई थी, पर उसके पूरी होने में उन्होंने मेरी उन्नति, प्रगति, विकास की सम्भावना भी देखी थी और उसके लिए वे सब प्रकार का दायित्व लेने और सब तरह का त्याग करने को तैयार थीं। फिर भी, जैसे-जैसे मेरे प्रस्थान का दिन निकट आने लगा, वैसे-वैसे उनके चेहरे का रंग उतरने लगा और वे खोई-खोई-सी रहने लगी। इसके पीछे कोई आर्थिक चिन्ता न थी-दस महीने यनिवर्सिटी से वेतन मिलने को था ही. फिर किताबों की रायल्टी मिलने का समय आ जाने को था, कोई खास ज़रूरत पड़ने पर बैंक में थोड़ी-बहुत जमा राशि से रुपये निकलवाये जा सकते थे। जाने के पहले ही 3000/- निकलवाने थे, उन दिनों बम्बई से लन्दन तक का हवाई टिकट ही 2000/- से कुछ ऊपर में मिलता था। तेजी के मन की गिरावट के पीछे थी, नारी की सहज दुर्बलता। उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित पुरुष की ओर मैंने पहले भी संकेत किया है, पर मेरे जीवन में ऐसे भी अवसर आये हैं जिनमें मैंने तेजी का विशुद्ध, सुकुमार, निर्भराकुल, नारी-रूप भी देखा है, जैसे कोई इस्पात की सीधी, कड़ी छड़ी किसी जादू से सलज, लचीली लतिका में परिवर्तित हो जाये। एक दिन उन्होंने कह ही दिया, 'इतने दिनों के लिए, इतनी दूर जा रहे हो, बच्चे छोटे-छोटे हैं, पता नहीं कैसी आये-जाये, मैं अकेली अबला-असहाय इस इतने बड़े नगर में...तुम कुछ भी न करो, कहीं मेरे साथ न जाओ, मैं सब कुछ अकेले कर लेती हूँ, पर मेरा सारा बल, सारा साहस तो इसीसे आता है कि तुम घर पर बैठे हो...तुम्हारे घर से दूर जाने की कल्पना से ही में अपने को बहुत निर्बल-कातर पा रही हूँ।' मैंने उन्हें समझाया, 'तुम यह क्या कह रही हो! मैं तो तुम्हारे बल पर ही विदेश जाने को तैयार हुआ था, अगर तुम इस समय ऐसी दुर्बलता दिखलाओगी तो इंग्लैण्ड में मेरा एक-एक दिन रहना कठिन और कष्टकर हो जायेगा। फिर मेरे प्रस्थान को गम्भीर अथवा अवसादपूर्ण अवसर बनाने का असर बच्चों पर अच्छा न पड़ेगा। तुमसे और बच्चों से अलग होना मेरे मन पर कम भारी नहीं पड़ रहा है, पर हमें कम-से-कम बाहर से प्रसन्न दिखना चाहिए, जिससे बच्चे समुझें कि मेरा जाना एक सहज, साधारण-सी घटना है।'
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